गुरुवार, 10 जून 2010

मसले कश्मीर को वाजपेयी के नजरिये से देखिये

२००३ के मई महीने मे प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का कश्मीर दौरा कई मायने मे खास था .रियासत के विधान सभा चुनाव के बाद वहां नयी सरकार आई थी .लम्बे वक्त के बाद लोगों मे लोकतंत्र के प्रति भरोसा जगा था .जम्मू कश्मीर के इतिहास मे वह पहला चुनाव था जिसमे धांधली के कोई आरोप नहीं लगे थे .वाजपेयी ने जैसा कहा वैसा ही फ्री एंड फेयर चुनाव की बात को साबित किया .जाहिर है १९८७ के बाद अटल जी पहले प्रधान मंत्री थे जिन्होंने कश्मीर के आवाम के साथ सीधा मुखातिव हुए .यह कोई नहीं जान रहा था कि इस आवामी सभा को संवोधन करते हुए वाजपेयी क्या ऐलान करेंगे .उन्होंने गुलाम एहमद महजूर का मशहूर शेर पढ़ा "बहारे फिर से आयेंगी .... और लोगों को दिल जीत लिया .कश्मीर से ही उन्होंने पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ आगे बढा कर हर को सकते मे डाल दिया था .पाकिस्तानी सद्र परवेज़ मुशर्रफ़ के भारत विरोधी अभियान की काट मे वाजपेयी के इस नए प्रस्ताव ने सबको चौका दिया था .वाजपेयी के साथ गए उनके सलाहकार भी प्रधान मंत्री के ऐलान से अचंभित थे .लेकिन लोगों के प्रधानमंत्री ने ये तमाम फैसले लोगों के बीच करना उचित समझा था ..वाजपेयी को किसी ने पूछा हुर्रियत के लोग संविधान के दायरे मे बात नहीं करेंगे ,उन्होंने कहा था वे संविधान के दायरे मे नहीं तो दिल के दायरे मे तो बात कर ही सकते है .१७ साल के बाद वादी के अलगाववादी जमात ,हुर्रियत कांफ्रेंस वाजपेयी से बात करने दिल्ली आयी थी .यह वाजपेयी का चमत्कार था कि भारत पाकिस्तान के रिश्तो पर जमी बर्फ पिघली तो कश्मीर मे लोगों को भारत को लेकर एक उमीद बनी .उस दौरे पर २४००० करोड़ रूपये का आर्थिक पकेज का ऐलान वाजपेयी ने भी किया था ,कश्मीर मे ट्रेन की कवायद तेज करने की पहल उन्होंने ही की थी लेकिन वे जानते थे कि ये तमाम पॅकेज बेकार है जब तक यहाँ राजनितिक पॅकेज नहीं दिए जायेंगे .हुर्रियत लीडर मौलाना मौलाना अब्बास अंसारी ने एक बार मुझे बताया था कि वाजपेयी का राजनीती से सन्यास उनलोगों के लिए सबसे बड़ा हादसा था .हुर्रियत के लीडर मानते है कि अगर वाजपेयी होते तो यह मसला अब तक ख़तम हो गया होता .यही बात पाकिस्तान से लौटे एक पत्रकार ने मुझे बताया था कि "पाकिस्तान मे आप जहाँ भी जाय अगर लोग ये जान गए कि आप भारत से है तो पहला सवाल वाजपेयी के लिए पूछेंगे .लोग पूछते है क्या वाजपेयी दुवारा नहीं आयेंगे"
लोगों की ये तड़प अटल जी के लिए क्यों है तो उसकी वजह जानी जा सकती है .मौजूदा प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह के कश्मीर के हालिया दौरे को लेकर यहाँ के लोगों मे भारी उम्मीदे थी .लोग प्रधानमंत्री के आर्थिक पॅकेज के लिए व्याकुल नहीं थे उन्हें यह लग रहा था कि बेलगाम अलगाववाद को नियंत्रित करने के लिए प्रधानमंत्री कुछ ऐलान करेंगे .कश्मीर मे बंद हड़ताल से अस्त व्यस्त जिन्दगी को उनके महज एक सियासी ऐलान से लोगों को काफी राहत मिल सकती थी .लेकिन प्रधान मंत्री बंद ऑडिटोरियम मे हजार करोड़ पॅकेज के ऐलान मे मशगुल रहे तो बांकी समय कश्मीरी आई ऐ एस टौपर शाह फैसल का गुणगान करते नज़र आये .प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला के पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेसन देखकर इतने गद गद थे कि उन्हें होनहार और लायक मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला मे जम्मू कश्मीर का भविष्य सुरक्षित नज़र आया .लेकिन सवाल यह उठता है कि जो प्रधान मंत्री शायद ही किसी राज्य का दौरा करते है .साल मे वे जितनी बार विदेशों का दौरा करते है उसका अगर एक फिसद मौका किसी राज्य को दे तो लोग धन्य हो जाय .ऐसे ओमर अब्दुल्ला के पॉवर पॉइंट प्रेजेटेसन को देखने कश्मीर जाने की क्या जरूरत थी .यह काम प्रधानमंत्री अपने ऑफिस मे भी कर सकते थे .देश के गृह मंत्री नक्सल समस्या से निपटने के नाम पर यह कह कर पल्ला झाड लेते है कि उन्हें इसके लिए मैंडेट नहीं मिला हुआ है तो क्या हमारे प्रधानमंत्री को किसी सियासी फैसले लेने के लिए मैंडेट नहीं मिला हुआ है ?यह एक बड़ा सवाल है .
रियासत के विकास के लिए ६७ परियोजना पर काम चल रहे है जिस पर ४६ हजार करोड़ रूपये खर्च किए जा रहे हैं । श्रीनगर के मुनिसिपल से लेकर डललेक की सफाई पर करोडो रूपये खर्च किए जा रहे है । लेकिन कश्मीर में जब देश के प्रधानमंत्री का दौरा होता है तो लोग हड़ताल पर होते है , बाज़ार बंद होते हैं , गलियां वीरान पड़ी होती है । प्रधानमंत्री का स्वागत कुछ इस तरह होता है कि अगर हिफाजत में थोडी सी ढील दी जाय तो उत्साही नौजवान प्रधानमंत्री के सामने आकर कश्मीर बनेगा पाकिस्तान का नारा लगा सकते है । आप इसे कामयाबी माने या नाकामयाबी प्रधानमंत्री का कश्मीर दौरे के समय पुरे कश्मीर में कर्फु जैसा माहोल होता है ।
पिछले पाँच वर्षों में भारत सरकार का ६० हजार करोड़ से ज्यादा खर्च शायद इस भ्रम में किया गया की विकास की रफ़्तार के सामने में अलगाववाद की आवाज धीमी पड़ जायेगी । लेकिन ऐसा नही हुआ । पैसे की बौछार से कश्मीर में रियल स्टेट में बूम है । कस्बाई इलाके में भी शोपिंग मौल खुल गए हैं । लेकिन जब भारत और पाकिस्तान का मामला सामने आता है तो वादी में जीवे जीवे पाकिस्तान की आवाज सबसे ज्यादा गूंजती है.... । क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश कि क्या पैसा कश्मीर मसले का समाधान है ? हमें यह याद रखना चाहिए कि बिहार में आज २० लाख से ज्यादा लोग कोसी की बाढ़ के कारण घर से बेघर है । इसका समाधान महज २०० -४०० करोड़ रूपये खर्च करके ढूंढा जा सकता था . कोसी पर बाँध और बराज बनाने से मिथिलांचल में विकास की रफ्तार तेज की जा सकती है ,लेकिन ऐसा नही हो रहा है ।
कश्मीर की इन राजनितिक पेचदीगियो पर राज्य के वर्तमान राज्यपाल एन एन वोहरा पिछले १० वर्षों नज़र रखे हुए है लेकिन कामयाबी के नाम पर उन्होंने जम्मू कश्मीर की मौजूदा सूरते हाल को देश को तोहफे के तौर पर दिया है । यही हाल कमोवेश पीएमओ और गृहमंत्रालय की भी है और देश के प्रधानमंत्री एक बार फिर पैसे का बौछार करके खाली हाथ वापस दिल्ली लौट आता है ।
कश्मीर का अलगाववाद मजहब के वजूद पर खड़ा है । हुर्रियत लीडर सैयेद अली शाह गिलानी का अपना तर्क है , मुसलमान होने के नाते कश्मीर सिर्फ़ पाकिस्तान का ही अंग हो सकता है । गिलानी की इस दलील को थोड़ा संशोधन करके ओमर फारूक और यासीन मालिक कश्मीर की आजादी की मांग करते है । यानि हिंदुस्तान से पैसा आ रहा है उन्हें कोई परहेज नहीं है लेकिन कश्मीर में हिंदुस्तान की सियासत नहीं चलनी चाहिए । कश्मीर में भारत की सियासत भी अजीब है , नेहरू जी के लिए कश्मीर का मतलब सिर्फ़ शेख अबुल्लाह से था , शेख साहब ने कहा हमें धारा ३७० चाहिए ,नेहरू जी ने कहा तथास्तु । शेख साहब की जिद थी कि पाकिस्तान कब्जे वाला कश्मीर पाकिस्तान के पास ही रहे , नेहरू जी ने कभी उस कश्मीर का दुबारा नाम नही लिया । शेख अब्दुलाह के बाद फारूक अब्दुल्लाह सामने आए । केन्द्र की सरकार जोड़ तोड़ करके फारूक को सिंहासन सौपती रही । फारूक से जी भरा तो मुफ्ती साहब सामने आए । उनकी बेटी पाकिस्तान के सद्र के इस बयान की आलोचना करती है की जरदारी साहब ने कश्मीर में सक्रिय आतंकवादियों को दहशतगर्द कहा था । महबूबा के लिए भी ये दहशतगर्द नही है ये जेहादी नहीं हैं । ये स्वतंत्रता सेनानी है । महबूबा जम्मू कश्मीर में अगले मुख्या मंत्री के दावेदार हैं । सोनिया जी और प्रधानमंत्री के साथ उनके बेहतर रिश्ते है .लेकिन भारत विरोधी अभियान छेड़ कर महबूबा कश्मीर मे अपनी सियासी पकड़ और मजबूत करना चाहती है . तो फ़िर कश्मीर की आजादी मांगने वालों के बीच से क्यों न मुख्यमंत्री का दावेदार ढूंढा जाय । पुराने चेहरे को सामने लाकर कश्मीरियों को चिढाने के वजाय क्या यह जरूरी नहीं है कि नए चेहरे को सामने लाया जाय । याद रहे कश्मीर में अलगावाद का जनक माने जाने वाले गिलानी साहब तीन बार एम् एल ऐ रह चुके है । हिजबुल मुजाहिद्दीन के सरबरा सलाहुद्दीन असेम्बली के चुनाव लड़ चुके हैं । ये अलग बात है कि फारूक अब्दुल्लाह के कारण उसे एम् एल ऐ नहीं बनने दिया गया । आज जरुरत है सियासी पहल की , पैकेज को भूल कर हमें एक सर्वमान्य लीडर खोजने होंगे जिसका कश्मीर के आम लोगों में पहुच हो । हमें इस गलती को भी सुधारने होंगे कि कश्मीर का मतलब सिर्फ़ वादी नहीं है , जम्मू का अपना अस्तित्वा है लदाख में भी लोग रहते है जो विशुद्ध भारतीय हैं । लेकिन केन्द्र सरकार कि ग़लत राजनीतिक फैसले ने कश्मीरी पंडित को सियासी धारा से अलग कर दिया , कश्मीर के गुर्ज्जर ,जम्मू की बड़ी आवादी , लदाख और कारगिल के लोग इस धारा से काट दिए गए । यही वजह है की महज २० फीसद सुन्नी मुसलमान की आवाज न केवल सियासी धारा को अपने साथ ले गई बल्कि भारत से आने वाले पैसे का भी जमकर लुत्फ़ उठाया है ।ये बदला हुआ कश्मीर है जहाँ सबसे बड़ा जेहादी सैयेद शालाहुदीन ६३ साल की उम्र मे अपने एक आतंकवादी कमांडर की विधवा से शादी रचा रहा है .हिंसा का दौर लगभग ख़तम हो चूका है .नौजवान एक बेहतर जिन्दगी जीने के लिये जदोजेहद कर रहा है और कामयाब भी हो रहा है .पाकिस्तान लोगों के दिलो दिमाग से बाहर है .ऐसे मौके पर देश के प्रधानमंत्री की एक छोटी सियासी पहल कश्मीर मे बाहर फिर से लौटा सकती है .