शनिवार, 6 नवंबर 2010

ओबामा देने आये हैं या कुछ लेने

ओबामा !ओबामा, किसका ओबामा ? लेकिन फिर भी इस ओबामा की गूंज हर जगह है .एक उम्मीद हर जगह है मानो ओबामा कुछ करके जायेंगे ,कुछ देके जायेंगे .किसको ? यह नही पता .राजनीतिक पंडित कहते है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के  भारत दौरे का मकसद  अमेरिका के लिए नए बाज़ार और अवसर तलाशने से है उनका तर्क है कि अगर वे  भारत को कुछ देने आये है तो उनकी टीम मे २०० से ज्यादा अमेरिकी कंपनी के सी ई ओ क्या करने आये है ? लेकिन मेरे जैसे अज्ञानी यह उम्मीद लगा बैठे हैं  कि ओबामा भारत मे कदम रखते ही यह ऐलान करेंगे कि 'पाकिस्तान भारत के खिलाफ जेहादियों को भेजना बंद करे बरना खैर नही "यह उम्मीद हमने ओबामा के चुनावी भाषण सुनकर जगाई थी .लेकिन राष्ट्रपति बनते ही ओबामा ने ऐसा पैतरा बदला कि हमने कहना शुरू कर दिया दोस्त दोस्त ना रहा ..... ओबामा राष्ट्रपति बनने से पहले यह अक्सर कहा करते थे पाकिस्तान को मिलने वाली अमेरिकी मदद की समीक्षा होगी ,उनका मानना था अमेरिका के लाखों करोडो डालर का इस्तेमाल पाकिस्तान भारत के खिलाफ आतंकवादी अभियानों मे लगता है .लेकिन आतंकवाद के खिलाफ जंग के नाम पर अबतक सबसे ज्यादा फंड ओबामा ने ही पाकिस्तान को दिया है .यानि पिछले दो साल मे पाकिस्तान को ९ बिलियन डॉलर मिले है .अमेरिका के  तथाकथित आतंक के खिलाफ जंग मे पाकिस्तान बराबर का साझेदार है .ओबामा को अफगानिस्तान के दल दल से अमेरिका को बाहर निकालना है इसके लिए पाकिस्तान ही एक मात्र सहारा है .बात चाहे अफगानी तालिबान से करो या फिर पाकिस्तानी तालिबान से  जरूत जनरल कियानी की ही पड़ेगी .
यह बात दुनिया जानती है कि पाकिस्तान मे सत्ता की डोर पाकिस्तानी फौज के हाथ मे है .आतंक के सारे  खेल का रेफरी पाकिस्तानी फौज है .डेविड कोलमन हेडली के हालिया खुलासा चौकाने वाले है उसने मुंबई हमले के लिए सीधे तौर पर पाकिस्तानी फौज और आई एस आई को जिम्मेदार ठहराया है .हेडली का माने तो इस हमले की जानकारी अमेरिका को थी .जबकि अमेरिकी ख़ुफ़िया विभाग का दावा है की उसने इस साजिश से भारत को बाखबर किया था .लेकिन हमले हुए और २०० से ज्यादा लोग मारे गए .हमले की जांच चल रही है ,कसाब को क्या सजा मिले इसपर फैसला होना अभी बांकी है .पाकिस्तान की अदालत को अभी और सबूतों का दरकार है .आरोप -प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है लेकिन फिर भी हम अमेरिका से उम्मीद लगा बैठे है की ओबामा भारत दौरे पर २६/११ हमले के पीड़ितों को न्याय दिलावे .यह बात जानते हुए भी पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलफ अमेरिका ने कभी भी सख्त कदम नही uthaya  है ..भारत को यह लड़ाई खुद लड़नी होगी ..
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबमा से पूरी दुनिया को उम्मीदे है यही वजह है की उन्हें पहले ही शांति का नोवेल पुरस्कार मिल चुका है .हम भी अगर दक्षिण एशिया मे शांति के लिए ओबामा से उम्मीद करते है ,पाकिस्तान पर कारवाई की मांग करते है तो शायद हमरा सोचना गलत नही है .क्योंकि पाकिस्तान का वजूद अमेरिकी से मिले फंड पर निर्भर है .आर्थिक रूप से जर्जर और सामजिक रूप से लहुलाहन पाकिस्तान मे जम्हूरियत पहले ही दम तोड़ चुकी है इस हालात मे पाकिस्तानी लोकतान्त्रिक सत्ता से उम्मीद करना बेमानी है .नयी दिल्ली का संवाद इस्लामाबाद से है जिनका कोई अस्तित्व नही है जबकि अमेरिका का प्रभाव रावलपिंडी यानि फौज के मरकज पर है .भारत को पता है फोजी जनरल ही बात चीत  की किसी पहल को आगे बढा सकते है लेकिन बातचीत और कारवाई के लिए उसे बात जरदारी और गिलानी से करनी पड़ती है जो खुद पाकिस्तान मे अपने वजूद के लिए लड़ रहे है .भारत को जनरल कियानी से बात करने के लिए कोई माध्यम चाहिए लेकिन वह इसके लिए किसी दुसरे देश की मदद नही ले सकता ?क्यों ये आप बेहतर जानते है .भारत पाकिस्तान के बीच समझौते की लम्बी फेहरिस्त है लेकिन वहां के जनरलों ने उन समझौते का क्या हश्र किया है आपके सामने है .भुट्टो का शिमला समझौता जनरल जिया की  भेट चढ़ गया .नवाज शरीफ का लाहोर समझौता जनरल परवेज मुशरफ के अहंकार का शिकार हुआ .तो राष्ट्रपति मुशर्रफ के समझौते को जनरल कियानी ने रद्दी की टोकरी मे डाल दिया .समझोते के इन हश्र के बाद भी हम अगर पाकिस्तान की हुकूमत  से किसी और समझौते की उम्मीद करते है तो उसका हश्र हमारे सामने है .
पाकिस्तान एक संप्रभु देश है इससे ज्यादा जोर इस बात पर दिया जाता है की पाकिस्तान के पास परमाणु बम का जखीरा है .चीन के लिए पाकिस्तान वह तुरुप का पत्ता है जिसका इस्तेमाल वह भारत के खिलाफ करता है .तो अमेरिका की चिंता यह है कि पाकिस्तान के इस परमाणु बोम्ब का इस्तेमाल आतंकवादी कही उसके खिलाफ न करले .लेकिन यह बोम्ब पाकिस्तान को भारत के खिलाफ जेहादियों को भड़काने, उन्हें कारवाई के लिए उकसाने की पूरी छूट देता है .यह बोम्ब पाकिस्तान मे फौज को सत्ता के केंद्र मे रखता है .आतंकवाद को लेकर जितनी चिंता भारत को है उससे ज्यादा चिंता अमेरिका को है लेकिन अगर आतंक के खिलाफ जंग के नाम पर अमेरिका खुद पाकिस्तानी फौज के सामने असहाय है तो भारत को ओबमा से ज्यादा 
उम्मीद करना बेमानी है .

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

गिलानी साहब के आज़ाद कश्मीर फ्री बंटेगी शराब

"राज करेगा गिलानी " हम क्या चाहते आज़ादी जैसे नारों के बीच दिल्ली के एल टी जी सभागार आज़ाद कश्मीर का मनोरम दृश्य प्रस्तुत कर रहा था लेकिन गुस्साए कश्मीरी पंडित के  नौजवान  बन्दे मातरम का नारा लगाकर आज़ादी के इस महान उत्सव का रंग फीका कर रहा था .आज़ादी द ओनली वे के इस महान जलसे मे सैयद अली शाह गिलानी   अपने आज़ाद कश्मीर मे न्याय और कानून व्यवस्था पर कुछ इस तरह प्रकाश डाल रहे थे "आजाद कश्मीर मे बहुसंख्यक मुसलमानों को शराब पीने की इजाजत नही होगी यानि वे शरियत के कानून से  बंधे होंगे जबकि दुसरे हिन्दू ,सिख और बौध तबके को शराब पीने की पूरी आज़ादी होगी .वे जहाँ और जब चाहे शराब पी सकते है और कानून इतना सख्त होगा कि अगर धोके मे भी कोई मुसलमान किसी के शराब की बोतल तोड़ेगा तो उसे इसका हर्जाना देना होगा ." .गिलानी साहब के इस आज़ादी को समर्थन करने अरुंधती  राय के आलावा देश के कई नामी अलगाववादी नेता इस समारोह मे जमा हुए थे .खालिस्तान के समर्थक से लेकर माओवाद के समर्थक ,मिज़ो विद्रोही से लेकर नागा विद्रोही हर ने भारतीय अस्मिता को रौंदते हुए भारत की संप्रभुता और अखंडता पर सवाल उठाने मे कोई कसर नही छोड़ी .क्योंकि ये भारत है, क्योंकि प्रजातंत्र मे इन्हें कुछ भी बोलने किसी भी मत का प्रचार करने का पूरा हक है .देश का कानून भले ही इसका इजाजत नही दे लेकिन फिर बुद्धिजीवी कहलाने का मतलब क्या होगा अगर इन्होने कुछ अलग नही कहा .सो खालिस्तान समर्थक बुद्धिजीवी ने इंडिया एज ए नेशन को बकवास करार दिया तो गिलानी ने अपनी तुलना सुभाष चन्द्र बोस से की .अरुंधती राय ने देश के तमाम अलगाववादियों और विद्रोहियों से कश्मीर को आजाद कराने और गिलानी के हाथ मजबूत करने की अपील की .कई नामी गिरामी प्रोफेसर कई नामी गिरामी भुत पूर्व उग्रवादी भारत के खिलाफ जहर उगलकर गिलानी के समर्थन मे महान ऐतिहासिक तथ्यों को प्रस्तुत करते नज़र आये .इस विहंगम दृश्य का अवलोकन मेरे  जैसे नाचीज पत्रकार और सैकड़ो की तादाद मे उपस्थित कानून के पहरुए भी कर रहे थे लेकिन सबकी अपनी जिम्मेदारी थी अपना ज्ञान बढ़ाने के अलावा और कोई चारा नही था ,ऐसी ही कुछ मजबूरी गृह मंत्री चिदम्बरम की भी थी जो पहले तो राजधानी दिल्ली मे इस तरह के सम्मलेन पर चुप रहे अब कारवाई की बात कर रहे है लेकिन जम्मू के जसविंदर को प्रो सुजाता भद्रो की बात बेहद अपमानित लगा तो उसने मंच पर अपना जूता उछाल दिया .जसविंदर को पुलिस ने तुरंत गिरफ्तार कर लिया था लेकिन वह यह जरूर बता गया कि जम्मू कश्मीर का मतलब सिर्फ गिलानी नही है .
जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला ने  इस  घटना की निंदा करते हुए जम्हूरियत मे सबको अपनी बात रखने और बोलने की आज़ादी का सम्मान करने की नशिहत दे डाली .लेकिन दो दिन पहले मुख्यमंत्री  अब्दुल्ला की विजय पुर  रैली मे किसी ने ओमर अब्दुल्ला के कश्मीर पर दिए गए बयान की निंदा करने की कोशिश की तो पुलिस ने मुख्यमंत्री के सामने उसकी जमकर धुनाई कर दी.शायद धारा ३७० मे किसी को मुख्यमंत्री के खिलाफ बोलने की आज़ादी नही है .इसी धारा ३७० की व्याख्या करते हुए ओमर अब्दुल्ला कहते है कि रियासते जम्मू कश्मीर का पूर्ण विलय अभी भारत के साथ नही हुआ है .अब्दुल्ला मानते है कि भारत के साथ जम्मू कश्मीर का इह्लाक कुछ शर्तों के साथ हुआ था .ओमर अब्दुल्ला आज वही बात कह रहे है जो ७० के दौर मे उनके महरूम दादा शेख अब्दुल्ला ने कहा था .तो क्या ओमर अब्दुल्ला मान रहे है कि कश्मीर मे सियासत भारत के खिलाफ माहोल बनाकर ही की जा सकती है या अपनी निष्क्रियता को छिपाने के लिए ओमर अब्दुल्ला ने भारत विरोधी बयानों का सहारा लिया है .
रियासत जम्मू कश्मीर का भारत मे विलय मुल्क के ६०० राजे रजवाड़े के विलय की एक कड़ी थी. लेकिन कश्मीर मे मुस्लिम बहुसंख्यक मे थे इसलिए पाकिस्तान यहाँ अपना सियासी आधार लगातार दुढ़ता रहा .उधर कश्मीर के सियासत दा लगातार इस कोशिश मे रहे कि कश्मीर को लेकर भारत पर एक दवाब बना रहे .१९४८ से लेकर १९७५ तक इसी दवाब को जारी रखने  के लिए शेख अब्दुल्ला ने कई बार अपना सियासी पैतरा बदला .जब कभी भी कश्मीर मे शेख अब्दुल्ला को अपना अस्तित्वा खतरे मे पड़ते दिखा उसने भारत के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया .लेकिन कभी भी कश्मीर मे लोकतंत्र को विकसित नही होने दिया .४०० से ज्यादा बोली ५० से ज्यादा धार्मिक मान्यता मानने वाले लोग ,अलग अलग संस्कृति अलग क्षेत्र अलग पहचान लेकिन रियासत मे सियासत की डोर हमेशा कश्मीर के ७ जिलो के संपन्न सुन्नी मुस्लिम तबके के हाथ रही .तक़रीबन २० फिसद की आवादी वाला यह समुदाय मुख्यधारा की सियासत मे अपनी पकड़ बनाने मे कामयाबी पायी तो कश्मीर मे अलगाववाद की सियासत को इसी तबके ने चलाया .बन्दूक उठाने वाले लोग भी इसी तबके से थे तो मौजूदा दौर मे पत्थर उठाने वाले नौजवान भी इसी तबके से है . सरकार मे आला अधिकारी से लेकर निचले स्तर के अहलकारो मे इसी तबके का बोलवाला है .इस हालत मे यह सवाल उठाना लाजिमी है कि क्या  कश्मीर के पंडित समुदाय ,गुज्जर बकरवाल ,सिया समुदाय ,जम्मू के हिन्दू ,लदाख के बौध शायद इसलिए अपनी सियासी आधार मजबूत नही कर पाए क्योंकि इनका लगाव भारत से है या फिर भारत  की सियासत ने  इन्हें अपना मानकर इन्हें त्रिस्क्रित कर दिया है .कश्मीर के लोग अपना ऐतिहासिक आधार राज्तार्न्गिनी मे ढूंढ़ते है .वे अपने को  भारत की परंपरा की एक मजबूत कड़ी मानते है .क्या इस ऐतिहासिक तथ्य को झुठलाया  जा सकता है .क्या आज़ादी की बात करने वाले लोगों को नही पता है कि वे जिस संयुक्त राष्ट्र का हवाला देते है उसके रेजोलुसों मे भारत या पाकिस्तान किसी एक को चुनने की बात की गयी है .आज़ादी वहां कोई विकल्प नही है .क्या उन्हें नही पता कि जनमत संग्रह कराने के लिए पाकिस्तान कभी तैयार नही होगा क्योंकि उसे अपने कब्जे के कश्मीर से अपनी फौज हटानी होगी  .आज गिलगित बल्तिस्तान पाकिस्तान का एक प्रान्त का दर्जा पा चुका है तो पाकिस्तान मक्बुजा कश्मीर की पूरी आवादी ही बदल गयी है .लेकिन फिर अगर गिलानी रायशुमारी की बात कर रहे है तो जाहिर है वे कश्मीर के लोगों को गुमराह कर रहे है .ऐसी गुमराह करने वाली बाते ओमर अब्दुल्ला भी कर रहे है तो इनकी सियासत को समझा जा सकता है .
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वाकई मे भारत के आमलोगों को कश्मीर की जरूरत है .क्या कश्मीर की अपार खनिज संपदा भारत को आर्थिक ताक़त बना सकता है ?आज भारत के आर्थिक संसाधन का सबसे ज्यादा उपयोग कश्मीर के लोग कर रहे है .भारत की आर्थिक संसाधनो की सबसे ज्यादा लूट इसी कश्मीर मे है लेकिन यहाँ के सियासतदान इस लूट को छिपाने के लिए भारत जब तब नशिहत भी देते है .पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला कहते है कि रियासत अपने संसाधनों से  अपने कर्मचारियों को एक महीने की  तनख्वा भी नही दे सकती है इस संसाधन से आम लोगों की  तरक्की की बात तो सोची भी नही जा सकती   लेकिन फिर भी फारूक साहब को ऑटोनोमी चाहिए तो गिलानी को आज़ादी .भारत के पैसे से फारूक साहब बनायेंगे खुशहाल कश्मीर ? तो पाकिस्तान के पैसे से गिलानी साहब बाटेंगे फ्री शराब ...

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

देश भक्त ओमर अब्दुल्ला की मुश्किलें

रियासत मे मुख्यमंत्री पद की कमान संभाले अभी ओमर अब्दुल्ला को दो  साल पुरे नही हुए है  लेकिन ओमर अब्दुल्ला यह बात मान चुके है कि वे कश्मीर मे सबसे ज्यादा निक्कमा मुख्यमंत्री साबित होने वाले है .पिछले महीने एक इंटरव्यू मे उन्होंने  माना था कि " सियासी तौर वे  कोई चमत्कार दिखाने के लायक नही है ना ही वे अपने आपको लोगों के बीच बेच पाए है ".यानि शेख अब्दुल्ला की तीसरी पीढ़ी को कश्मीर मे तुरुप के पत्ते की तरह इस्तेमाल करने की पूरी कोशिश की गयी लेकिन यह दाव पूरी तरह से खाली गया .पिछले विधान सभा चुनाव मे नेशनल कान्फेरेंस सबसे बड़ी पार्टी के रूप मे सामने आई लेकिन सरकार बनाने से कोसो दूर थी .कांग्रेस के साथ सरकार बनाने की कबायद तेज हुई लेकिन कांग्रेस की तरफ से साफ़ कहा गया फारूक पिटे हुए मोहरे है सिर्फ ओमर अब्दुल्ला को आजमाया जा सकता है .हालत यह है कि जो काम पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद नही कर सका .वादी मे सरगर्म अलगाववादी संगठन नही कर सके वह काम ओमर अब्दुल्ला अपने चंद महीनो के शासन मे कर दिखाया .कश्मीर का एक आध इलाका नही बल्कि वादी के दस जिले लगातार चार महीनो से अस्तव्यस्त रहे १०० से ज्यादा बच्चे मारे गए .वादी के कामकाज ठप्प रहे .दरअसल लोगों का यह गुस्सा स्थानीय ओमर अब्दुल्ला सरकार के खिलाफ था लेकिन बड़ी चालाकी से इस नाकामी के लिए केंद्र को जिम्मेदार ठहरा दिया गया .आपदा प्रवंधन के जिम्मेदारी लेते हुए केंद्र सरकार ने अपनी पहल तेज की और जख्मों पर मरहम लगाने की शानदार पहल की .अब जब हालत फिर से सामान्य होने लगे है ओमर अब्दुल्ला एक नए सियासी चेहरे के साथ वापस आ गए है .कहा गया कि राहुल गाँधी  ओमर अब्दुल्ला को हर हाल मे मुख्यमंत्री बने रहने की वकालत कर रहे है जाहिर है कश्मीर मे शांति बहाली के लिए केंद्र को दुसरे आप्शन ढूंढने पड़े .
कश्मीर भारत का अहम् हिस्सा है जाहिर है लोगों की मुश्किलों पर भी गौर करने की जरूरत है लेकिन अगर लोगों की शिकायत भ्रष्ट और अक्षम स्थानीय सरकार से है लेकिन बदले मे अगर श्रीनगर के सी आर पी ऍफ़ के बंकरों को हटाया जाय तो माना जायेगा कि केंद्र सरकार खुद समस्या से मुह चुरा रही है .पिछले वर्षों मे ६०० से ज्यादा नौकरशाह और राजनेताओं पर करोडो रूपये डकार लेने का आरोप है लेकिन यह सरकार एक भी व्यक्ति पर केस दर्ज नही कर सकी है .एक एक मंत्री के घरों के रंग रोगन पर करोडो अरबो खर्च किये जा चुके है लेकिन यह पूछने वाला नही है कि लोगों के पैसे की लूट पर यह सरकार चुप क्यों है .जाहिर है ओमर अब्दुल्ला अपनी हालत बेहतर समझते है सो भ्रष्टाचार और अक्षमता पर बोलने के बजाय उन्होंने मसले कश्मीर मे एक नयी सियासी पेंच डालने की कोशिश की है .ओमर अब्दुला मुख्यमंत्री से पहले देश के महत्वपूर्ण मंत्रालय मे मंत्री पद की शोभा बढा चुके है लेकिन उन्हें यह बात समझ मे आ गयी है कि वादी की सियासत मे अलगाववाद जरूरी है .ओमर अब्दुल्ला को लगा कि पी ड़ी पी का सियासी आधार अलगाववाद है सो उन्होंने झट से यह कह दिया कि कश्मीर का भारत के साथ पूर्ण विलय अभी होना बाकी है यानि कश्मीर की जो हैसियत गिलानी साहब देखते है वही हैसियत ओमर अब्दुल्ला के लिए भी है .कल तक अलगाववादी लीडरों के लिए ओमर अब्दुल्ला दुश्मन न १ था ,वादी मे मारे गए १०० से ज्यादा नौजवानों के लिए ओमर अब्दुल्ला जिम्मेदार था आज यही अब्दुल्ला सबके प्यारे हो गए है .खुद गिलानी इसे अपनी जीत बता रहे है .
 अरबी में एक कहावत काफी प्रचलित है कि जिसने ज्यादा दुनिया घूमा हो वह उतना ही ज्यादा झूठ बोलता है . ओमर अब्दुल्ला अपने खानदान की नाकामयाबी को छुपाने के लिए सीधे झूठ और भ्रम  का सहारा ले रहे है . उन्हें  यह याद दिलाने कि जरूरत है कि १९४८ में जब पाकिस्तानी फौज ने कश्मीर पर आक्रमण किया था तो कश्मीर के हजारों लोगों ने पाकिस्तानी गुरिल्लाओं को रोका था . सैकडो की तादाद में लोग शहीद हुए थे . बारामुल्ला में पाकिस्तानी फौज ने सैकडो बहनों की असमत्दरी की थी .भारत में कश्मीर विलय का एलान होने के साथ ही भारतीय फौज ने पाकिस्तानी आक्रमणकारियों को मार भगाया था . भारतीय फौज के स्वागत में लाखों की तदाद में जमाहोकर कश्मीरियों ने भारत के प्रति अपने समर्थन का इजहार किया था . याद रखने वाली बात यह भी है कि वह शेख अबुल्लाह ही थे जिनके कहने पर पंडित नेहरु संयुक्त राष्ट्र गए और उन्होंने कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के हवाले कर दिया था ,जिसे हम पाकिस्तान मक्बूजा कश्मीर के नाम से जानते है . ओमर साहब को यह भी याद दिलाने की जरूरत है कि युसूफ शाह १९८९ तक एक आम कश्मीरी एक आम भारतीय ही था . भारतीय लोकतंत्र में उसे गहरी आस्था थी और उसने एम् एल ए के लिए पर्चा भी भरा था . लोग कहते है कि युसूफ शाह की जीत पक्की थी . लेकिन फारूक अब्दुल्लाह ने उसके सपने पर पानी फेर दिया उसे एम् एल ए नहीं बनने दिया गया . युसूफ शाह सैयेद शालाहुद्दीन बन गया . वह हिजबुल मुजाहिदीन का कमांडर चीफ   बन बैठा . और जब कश्मीर में आतंकवाद का दौर शुरू हुआ तो फारूक अब्दुल्ला कश्मीर छोड़कर लन्दन भाग खड़े हुए . राजीव गांधी की भावुकता का नाजायज फायदा उठाकर फारूक अब्दुल्लाह १९९६ में ही दुबारा मुख्यमंत्री  बनकर लौटे .जम्हूरियत का जितना बलात्कार ओमर साहब आपके खानदानो ने  कश्मीर में किया  शायद ऐसा भारत में कही हुआ हो .  ३० साल तक शेख अब्दुल्लाह खानदान का जबरन कब्जा वादी मे  लोगों का  लोकतंत्र से भरोसा ख़त्म कर दिया था . .

पिछले  वर्षों में भारत सरकार ने  एक लाख   हजार करोड़ से ज्यादा खर्च कश्मीर मे  शायद इस भ्रम में किया है कि विकास की रफ़्तार के सामने में अलगाववाद की आवाज धीमी पड़ जायेगी । लेकिन ऐसा नही हुआ । पैसे की बौछार से कश्मीर में रियल स्टेट में बूम है । कस्बाई इलाके में भी शोपिंग मौल खुल गए हैं । लेकिन जब भी कोई आग भड़कती है तो वादी में जीवे जीवे पाकिस्तान की आवाज सबसे ज्यादा गूंजती है.... । क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश कि क्या पैसा कश्मीर मसले का समाधान है ? भ्रष्टाचार के आकंठ मे  डुबे  कश्मीर के सियासतदान  कभी भी यह स्वीकार नही करते है कि लोगों का भरोसा उन्होंने खोया है बल्कि हर बार वे कश्मीर को एक अलग समस्या बताते हुए सारा ठीकरा केंद्र के सर फोड़ देता देता है  कलतक सोपोर मे केंद्रीय विश्विद्यालय की मांग करने वाले गिलानी साहब आज अगर दोबारा जनमतसंग्रह की मांग करने लगे है तो माना जायेगा कि कश्मीर मे अलगाववाद की सियासत को वहां की सरकारों ने जिन्दा रखी है .कश्मीर के लोग पाकिस्तान की हालत से भली भाति वाकिफ है सो वह गिलानी साहब के कहने से पाकिस्तान नही चले जायेंगे .उन्हें यह भी पता है अगर जनमतसंग्रह हुए भी तो उन्हें भारत और पाकिस्तान मे से किसी एक को चुनना होगा .आज़ादी का तीसरा विकल्प नही है .उन्हें यह भी पता है कि जनमत संग्रह कराने के लिए पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र की शर्तों को मानना होगा और उसे पाक अधिकृत कश्मीर से लेकर गिलगित बल्तिस्तान से अपने फौज हटाने होंगे और उन इलाकों को भारतीय फौज के हवाले करने होंगे .क्या पाकिस्तान कभी संयुक्त राष्ट्र की शर्तो को मानने के लिए तैयार होगा .क्या पाकिस्तान कभी भी इन इलाकों से पंजाब ,सिंध और पख्तून के लाखों लोगों को निकाल बाहर करेगा  .पाकिस्तान खुद संयुक्त राष्ट्र के पुराने प्रस्ताव को बीते दिनों की बात कह रहा है लेकिन कश्मीर मे अलगाववादी संयुक्त राष्ट्र की बात करते है .जाहिर है वे लोगों से झूठ बोल रहे है और उनका यह झूठ तबतक चलता रहेगा जबतक कश्मीर मे भ्रष्टाचार कायम रहेगा और राजगद्दी की वंश परंपरा चलती रहेगी.आज अगर ओमर अब्दुल्ला विलय के ऐतिहासिक दस्तावेजो पर सवालिया निशान लगा रहे है तो यह माना जायेगा कि इन अब्दुल्लाओं ने भारत  सरकार को बड़े ही हलके से लिया है .

सोमवार, 20 सितंबर 2010

गृह मंत्री जी ! क्यों गुस्से में है कश्मीरी नौजवान

सैयद अली शाह गिलानी आज कश्मीर मे सबसे बड़े कद्दाबर लीडर है या फिर राज्य की ओमर अबुल्ला की सरकार ने उन्हें इस मुकाम पर पहुँचाया है यह बहस का विषय है लेकिन इतना तो तय है कि गिलानी आज कश्मीर मे सियासी धारा को मोड़ने की ताक़त रखते है .सवाल यह है कि कश्मीर मे आज ओमर अब्दुल्ला सरकार की रिट चल रही है या गिलानी की ? इसका जवाब गिलानी साहब का हर्ताली कैलेण्डर है .कश्मीर मे कब बाजार खुलेंगे ,किस दिन ऑफिस खुलेंगे ,किस दिन बच्चे स्कूल जायेंगे यह तय गिलानी साहब करते है न कि ओमर अब्दुल्ला की सरकार .यानी व्यवस्था पर पूरी तरह से अलगाववादी नेता हावी है ,चुनाव से जीतकर आये जनप्रतिनिधि या तो कश्मीर छोड़ चुके है या फिर कही कोने मे दुबके है लेकिन सरकार ओमर अब्दुल्ला की चल रही है .क्योंकि यह जिद फारूक अब्दुल्ला की है या फिर ओमर अब्दुल्ला राहुल गाँधी की पसंद है . बाप फारूक अब्दुल्ला की सियासी महत्वाकांक्षा अगर कश्मीर मे भारत के अबतक किये गए तमाम प्रयासों पर पानी फेर रही है तो शेख अब्दुल्ला बनने की सियासी महत्वाकांक्षा पाले गिलानी साहब नौजवानों को इस खेल मे बली का बकरा बना रहे है .चार महीने पहले कश्मीर की हालत यह थी कि कश्मीर मे देशी -विदेशी शैलानियो की तादाद ७ लाख से ऊपर पहुँच गयी थी ,अमन के उस माहोल मे कोई गिलानी साहब का नाम लेने वाला नही था .कश्मीर की सियासत मे लगभग अपने को ख़ारिज मानकर सैयद अली शाह गिलानी दिल्ली स्थित अपने घर की चारदीवारी मे सिमट गए थे लेकिन ओमर अब्दुल्ला की सियासी नादानी इस शख्स को रातो रात हीरो बना दिया .आज कश्मीर मे शायद लोग जितने शेरे कश्मीर शेख अब्दुल्ला को नही जानता होगा उससे ज्यादा लोग आज गिलानी को जानते है
.एक मासूम तुफैल अहमद की मौत से उठा बवाल ने अबतक १०० से ज्यादा नौजवान और बच्चो की जिन्दगी लील ली है लेकिन अबतक यह पता लगाया जाना बाकी है कि ये पत्थर चलाने वाले बच्चे गुस्से मे क्यों है ?
२० -२५ साल का पढ़ा लिखा नौजवान आज क्यों गिलानी साहब के सुर मे सुर मिला रहा है ?क्यों पढ़े लिखे बच्चे गिलानी साहब के पीछे आज़ादी का नारा लगा रहा ?क्यों बरसो बाद कश्मीर मे एक बार फिर जीवे जीवे पाकिस्तान का नारा बुलंद है ?
फारूक अब्दुल्ला कहते है कि इन बच्चो को ऑटोनोमी चाहिए ,गिलानी कहते है कश्मीर के बच्चे टोटल आज़ादी चाहते है .यही बात दुसरे अलगाववादी नेता भी कहते है .महबूबा से पूछिये ओ कहेंगी फौज को कश्मीर से हटालो बच्चे अपने आप खुश हो जायेंगे .हमारे गृह मंत्री कहते है कि कश्मीर की एक यूनिक समस्या है इसका हल भी यूनिक होना चाहिए ,सो वे मानते है कि इसका हल राजनीतिक है .गृह मंत्री कभी इस गुस्साए लोगों से नही मिले है लेकिन उन्हें कहा जाता है कि बच्चे आर्म्स फाॅर्स एक्ट हटाने से खुश हो जायेंगे तो कहते है इसे हटाना चाहिए ,उन्हें कहा जाता है कि कश्मीर से जो वादे किये गए थे उसे पूरा करने से गुस्साए नौजवान खुश हो जायेंगे तो गृह मंत्री उन तमाम पुराने समझौते को खंगालने मे व्यस्त हो जाते है लेकिन उनके साथ दिक्कत यह है कि उनके साथ मंत्रिमंडल और पार्टी मे कश्मीर के खेल मे उनसे बड़े खिलाडी है और चिदम्बरम साहब चुप चाप पहल करते करते अचानक खामोश हो जाते है .
गृह मंत्री जी कश्मीर समस्या के राजनीतिक हल ढूंढने से पहले अगर नौजवानों के गुस्से को समझने की कोशिश की होती तो शायद उन्हें पुराने समझौते को लेकर उतनी माथा पच्ची नही करनी पड़ती .यह समस्या भ्रष्टाचार के आकंठ मे डुबे रियासत की है .कश्मीर मे सियासत की कीमत है अगर आप भारत के साथ है तो आपकी कीमत है अगर आप पाकिस्तान के साथ है तब भी आप की कीमत है .यानी यहाँ हर सियासी नारे की कीमत है .पिछले वर्षों मे यहाँ पानी की तरह पैसा बहाया गया है ,आर्थिक पैकेजों की झड़ी लगा दी गयी है . भारत सरकार का अनुदान यहाँ कर्ज नही है बल्कि यह मुफ्त का राशन है जिसे कुछ लोग आपस मे बाट लेते है .जिस कश्मीर को पिछले पांच वर्षों मे एक लाख करोड़ रूपये से ज्यादा रूपये मिले हों और उस कश्मीर मे आज भी अगर एक पढ़े लिखे नौजवान को सरकारी नौकरी के अलावा कोई विकल्प नही हो तो माना जायेगा कि इस रकम को कहीं लूट ली गयी है .कश्मीर मे किसी नेता पर कभी आपने भ्रष्टाचार का मामला नही सुना होगा .ओमर अब्दुल्ला सरकार के तीन मंत्रियों पर दुबई मे घर खरीदने की चर्चा अख़बारों मे आई लेकिन यह चर्चा कभी किसी लीडर ने नही उठाई क्योंकि इस हमाम मे सभी नंगे है .छोटे मुलाजिम से लेकर बड़े अधिकारी तक कश्मीर मे यह तादाद ९ लाख से ऊपर है .पिछले तीन महीने से स्कूल बंद है ,कॉलेज बंद है ,दफ्तर बंद है और मुलाजिम घर मे बैठे है लेकिन महीने की पहली तारीख को उनकी तनख्वा अकाउंट मे पहुँच जाती है.प्रति महिना कश्मीर की सरकार २००० करोड़ रुपया सैलरी बाटने पर खर्च करती है लेकिन उस सरकार की आमदनी १०० करोड़ के आंकड़े को भी नही पार कर पाती .यानी पैसा भारत सरकार का है तो ओमर अब्दुल्ला को दरिया दिली दिखाने से कौन रोक सकता है. क्या ओमर अब्दुल्ला आजतक अपने मुलाजिम को यह कह पाए है कि काम नही तो पैसा नही .कश्मीर के आज हर घर मे कोई न कोई सरकारी फर्द है लेकिन आज़ादी की बात आज हर घर से उठ रही है क्योंकि पैसा अपने आप हर घर मे पहुच रहा है ..क्या वे यह नही जानते कि कश्मीर की सरकार अपने बदौलत अपने मुलाजिम को एक दिन का भी तनख्वा नही दे सकती .लोग यह जानते है लेकिन भ्रष्ट व्यवस्था के लिए आज़ादी की मांग सबसे बड़ी ढाल है .
कश्मीर के इन नौजवानों को पाकिस्तान की हालत हमसे ज्यादा पता है .उन्हें पता है कि पाकिस्तान के साथ उनका वही हश्र होगा जो कभी बंगलादेश का हुआ था ,आज बलूचिस्तान का हो रहा है .उन्हें पता है कि मजहब के नाम पर बने स्टेट मे लोगों की आज़ादी का मतलब क्या होता है .यही वजह है कि जब कभी भी जम्हूरियत की बात होती है तो आम लोग इस अमल मे बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते है ये अलग बात है कि वे हर बार ठगे जाते है ..क्योंकि सरकार के नाम पर वही पुराने चेहरे और वही भ्रष्ट लीडरों की फौज सामने आ जाती है .

सत्ता और पैसे का खेल जितना भारत समर्थित दल मे है उसे कही ज्यादा भारत विरोधी जमातों मे है .गिलानी साहब को इस दौर मे कड़ी चुनौती पूर्व आतंकवादी मशरत आलम से मिल रही है तो अपना आधार खो चुके मिरवैज ओमर फारूक गिलानी के असर को कम करने के लिए ओमर अब्दुल्ला से मदद मांगता है .अगर यह सियासत आग जलाने से ही चलती है तो कश्मीर मे ईद के दिन आग जलाने की छूट मिरवैज ओमर फारूक को भी मिली .सरकार आज तक गिलानी पर कुछ करवाई नही कर सकी तो मिरवैज अपने है .

ये सारे खेल इस लिए नही चल रहे है क्योंकि कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है या फिर वहां के लोग अतिवादी है यह खेल इसलिए चल रहा है क्योंकि वहां लोग अपने को भारत से अलग मानते है .वहां जम्हूरियत अपनी ज़मीन नही बना सकी है .यह ज़मीन कभी ऑटोनोमी से नही बनेगी यह ज़मीन फौज हटाने से नही बनेगी या फिर ये ज़मीन आज़ादी मिलने से नही बनेगी .भारत के रहने वाले ११ करोड़ मुसलमानों का समर्थन आज अगर कश्मीरियों के साथ नही है तो यह जाहिर है कि वे उनके पाखंड को जानते है .जो मुसलमान फिलिस्तीन के सवाल पर इराक के सवाल पर दुनिया के किसी हिस्से मे मुसलमानों पर हुए अत्याचार के खिलाफ पुरे भारत मे जोरदार प्रदर्शन करता है आज वे कश्मीर मे तथाकथित ज्यादतियों के खिलाफ चुप क्यों है ?इस अर्थ को समझना होगा . कश्मीर का मतलब सिर्फ वादी के दस जिले नही है उसमे जम्मू और लद्दाख का भी अस्तित्व है ..धारा ३७० की बात हो या स्पेशल एस्टेट्स की इससे आम लोगों का कुछ भी भला नही हुआ है इस स्पेशल ने कुछ लोगों को कश्मीरियों को धोके मे रखकर अपना उल्लू सीधा करने का मौका जरूर दे दिया है .

रविवार, 20 जून 2010

नीतीश जी को गुड से नहीं गुलगुले से है परहेज


बिहार एक बार फ़िर चर्चा में है । चर्चा के कई कारण है . ६ महीने बाद वहा चुनाव होने वाले है लेकिन असली चर्चा का विषय सत्ता समीकरण को लेकर जोड़ -तोड़ है. नॅशनल मिडिया मे खबर के लिए कुछ लोग आदर्श है जिसमे नरेन्द्र भाई मोदी का नाम सबसे ऊपर है .सो राष्ट्रीय मिडिया मे प्राइम टाइम झटकने के लिए नीतीश ने नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाया है .कोशी  बाढ़ पीड़ित  सहायता राशि गुजरात को लौटकर नीतीश ने  अपने सेकुलर छवि पर बने दाग को लगभग धो लिया है .वह पैसा गुजरात के लोगों का था लेकिन नीतीश ने उसे मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को लौटा दिया है .वह पैसा कोशी के बाढ़ पीड़ितों के नाम था लेकिन वह कर्ज नीतीश जी ने खुद उतरा है .हो सकता है कि आने वाले समय मे गुजरात के लोग और लम्बा फेहरिस्त दे ,तो नीतीश जी पाई पाई चुकाने के लिए केंद्र से कुछ उधार भी लें .हो सकता है इस बहाने वे कांग्रेस के कुछ और करीब आयें .जहाँ तक मुझे याद है गुजरात से करोड़ों रूपये की राहत सामग्री बाढ़ पीड़ितों को लिए भेजी गयी थी .लेकिन सवाल इमेज का है सवाल वोट का है तो नीतीश जी अपने को सेकुलर मनवाने के लिए कुछ भी कर सकते है .हो सकता है कि अगर गुजरात से यह मांग तेज हुई कि अपने बिहारी मजदूर को वापस ले जाओ तो नीतीश जी एक क्षण भी गुजरात सरकार का यह एहसान नहीं लेंगे और तमाम मजदूरों को वापस बिहार ले आयेंगे .सवाल सेकुलर का है सवाल ईमान का है सो हो सकता है कि नीतीश अपने सरकार को भी दाव पर लगा दे .क्योंकि उन्हें पता है कि इस देश के सियासी दूकान मे  सेकुलारिजम सबसे ज्यादा बिकता है .
  पिछले एक दशक से बीजेपी के साथ गलबहिया डाल कर नीतीश अपनी सियासी नैया को पार लगा रहे है .बिहार मे बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चला रहे है .बिहार मे बीजेपी विधायकों की संख्या ५५ है लेकिन सरकार को वन मैन शो की तरह नीतीश चला रहे है .नीतीश को बीजेपी से परहेज नहीं है लेकिन उन्हें नरेन्द्र मोदी से परहेज है क्योंकि वे  लालू की राजनीती से आज भी डरते है, क्योंकि  वे कांग्रेस को एक बेहतर ओपसन मानते है  अगर ये पार्टियाँ मोदी को सांप्रदायिक कह रही है तो नीतीश को मोदी से परहेज करना ही होगा .बिहार मे लोग कहते है कि नीतीश को गुड से नहीं गुलगुले से परहेज है .लेकिन सवाल यह है कि जब भारत के एक संवैधानिक दायित्वा की जिम्मेदारी नरेन्द्र मोदी पर है देश के किसी अदालत ने उसे आज तक सांप्रदायिक करार नहीं दे  सकी है .चुनाव आयोग के सामने नरेन्द्र मोदी सेकुलर है तो क्या मोदी इसलिए कोमुनल है क्योंकि यह बात कांग्रेस कह रही है ,यह बात लालू यादव कह रहे है .याद कीजिये बिहार मे २० साल लालू ने बीजेपी का खौफ दिखाकर बिहार की व्यवस्था को रौंदा .आज भी वो अपने आप को सबसे बड़ा सेकुलर नेता बता रहे है लेकिन सवाल यह है कि फिर मुसलमानों ने उनका साथ क्यों छोड़ा ?.क्यों उनके २० साल के राज मे भागलपुर के दंगा पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाया ?.क्यों बिहार के तमाम हस्तकरघा उद्योग ठप पड़ गए ?.राज्य मे १६ फिसद मुलमानो मे कितने लोग सत्ता और सरकारी नौकरियों मे अपनी जगह बना पाए ?.तो क्या यह नहीं माना जाय बीजेपी का भूत दिखाकर लालू ने मुसलमानों के साथ धोखा किया है  .
इंडिया टुडे के हालिया कानक्लेव मे बिहार को तक़रीबन हर मामले मे पिछड़ा राज्य घोषित किया गया था  । अग्रिम राज्यों की सूची मे हिमाचल ,दिल्ली से लेकर पंजाब ने लगभग सभी पुरस्कार झटक लिए  । बिहार और उत्तर प्रदेश का कोई नाम लेने वाला नही था । कह सकते है की आर्थिक प्रगति ने उत्तर और दक्षिण की खाई को बढ़ा दी है ।लेकिन बिहार में नीतीश के दौर मे एक भरोसा जगा है विकास की नयी सोच बनी है .ज़मीन पर विकास की परिकल्पना दिखने लगी है .मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विश्वास यात्रा के रथ पर सवार होकर पुरे बिहार का दौरा कर रहे है .जाहिर है उन्हें लोगों का समर्थन भी मिल रहा है .फिर क्या वजह है कि नीतीश लालू -पासवान से इतने भयाक्रांत है कि वे बात बात पर नरेन्द्र मोदी को कोस रहे है और अपने सेकुलर साबित करने के लिए नरेन्द्र मोदी को गुजरात  दंगे का दोषी करार दे रहे है .यानि जो फैसला  अभी तक देश की अदालत नहीं दे सका है वह फैसला नीतीश सुना रहे है .अगर नरेन्द्र मोदी सांप्रदायिक है तो पूरी बीजेपी सांप्रदायिक है फिर नीतीश को बीजेपी से क्यों परहेज नहीं है . अगर नीतीश सचमुच विकास पुरुष बनना चाहते है तो उन्हें नरेन्द्र मोदी से प्रेरणा लेने की जरूरत है लेकिन अगर नीतीश  मोदी से घृणा का स्वांग रच रहे है तो कहा जायेगा कि वे लोगों को धोखा दे रहे है .
आज  तरक्की के मामले मे अगर बिहार को तीन प्रमुख राज्यों की सूचि में रखा जाता है तो यह किसी बिहारी के लिए गर्व की बात हो सकती है । पिछले साल बिहार की यह आर्थिक प्रगति हरियाणा के करीब था यानि लगभग ११ फीसद । यह प्रगति औद्योगिग क्रांति की नही है ,यह प्रगति राज्य मे भारी पूजी निवेश की नही है ,यह प्रगति बिहारी कामगारों की बदौलत सम्भव हो सकी है । आज भी बिहार के हजारो गाँव मनिओर्देर इकोनोमी के बूते कामयावी की अलग तस्वीर पेश कर रहे है । वही गाँव जो कल तक कभी बाढ़ तो कभी सुखा के कारण जर्जर हालत मे थे वहां लोगों के चेहरे पर मुस्कान देखी जा सकती है । आज इन्ही गाँव के बच्चे सुपर ३० और सुपर ६० से कोचिंग लेकर आई आई टी मे अब्बल दर्जा पा रहे है । इन्ही गाँव के हजारो बच्चे दिल्ली ,उत्तर प्रदेश , दक्षिण के राज्यों मे माता पिता की मोटी रकम खर्च करके ऊँची शिक्षा हासिल  कर रहे है । कह सकते है कि बिहार के मध्यवर्गीय समाज ने देश की मुख्यधारा मे अपने बच्चो को शामिल करने के लिए अपना सबकुछ कुर्बान कर रखा है । अनपढ़ और कम पढ़े माता पिता को भी पता है कि पुरी दुनिया आज ग्लोबल विलेज का हिस्सा है जहा सिर्फ़ ज्ञान का चमत्कार का है ।सुपर ३० और ६० के चमत्कार को पूरी दुनिया ने सराहा है जहाँ दलित ,पिछड़े और गरीबों के बच्चे आई आई टी मे अब्बल आ रहे है .लेकिन आज भी यहाँ की राजनीती दलित -महादलित ,पिछड़ा -अति पिछड़ा ,सेकुलर -कोमुनल मे बाट कर बिहार को दुबारा उसी जातिवाद के दल दल मे धकेल रही है .
 जातीय समीकरण के आधार खिसक रहे है लेकिन राजनीती इस जातीय समीकरण को जिन्दा रखने के लिए जदोजेहद कर रही है  । बिहार की चिंता बिहार से बाहर रहने वाले लोग ज्यादा कर रहे है । बिहारी कहलाने का अपमान पी कर भी निरंतर बिहार की सम्पनता में  अपनी भूमिका निभा रहे है . सियासत से उन्हें कोई लेना देना नही क्योंकि उन्हें जात से नही बिहार से प्यार है ।ओछी सियासत करने के वजाय नीतीश विकास के नाम पर ही अगर अपने विश्वास यात्रा को कायम रखें तो बिहार के लिए यह भी एक महान कार्य होगा .


गुरुवार, 10 जून 2010

मसले कश्मीर को वाजपेयी के नजरिये से देखिये

२००३ के मई महीने मे प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का कश्मीर दौरा कई मायने मे खास था .रियासत के विधान सभा चुनाव के बाद वहां नयी सरकार आई थी .लम्बे वक्त के बाद लोगों मे लोकतंत्र के प्रति भरोसा जगा था .जम्मू कश्मीर के इतिहास मे वह पहला चुनाव था जिसमे धांधली के कोई आरोप नहीं लगे थे .वाजपेयी ने जैसा कहा वैसा ही फ्री एंड फेयर चुनाव की बात को साबित किया .जाहिर है १९८७ के बाद अटल जी पहले प्रधान मंत्री थे जिन्होंने कश्मीर के आवाम के साथ सीधा मुखातिव हुए .यह कोई नहीं जान रहा था कि इस आवामी सभा को संवोधन करते हुए वाजपेयी क्या ऐलान करेंगे .उन्होंने गुलाम एहमद महजूर का मशहूर शेर पढ़ा "बहारे फिर से आयेंगी .... और लोगों को दिल जीत लिया .कश्मीर से ही उन्होंने पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ आगे बढा कर हर को सकते मे डाल दिया था .पाकिस्तानी सद्र परवेज़ मुशर्रफ़ के भारत विरोधी अभियान की काट मे वाजपेयी के इस नए प्रस्ताव ने सबको चौका दिया था .वाजपेयी के साथ गए उनके सलाहकार भी प्रधान मंत्री के ऐलान से अचंभित थे .लेकिन लोगों के प्रधानमंत्री ने ये तमाम फैसले लोगों के बीच करना उचित समझा था ..वाजपेयी को किसी ने पूछा हुर्रियत के लोग संविधान के दायरे मे बात नहीं करेंगे ,उन्होंने कहा था वे संविधान के दायरे मे नहीं तो दिल के दायरे मे तो बात कर ही सकते है .१७ साल के बाद वादी के अलगाववादी जमात ,हुर्रियत कांफ्रेंस वाजपेयी से बात करने दिल्ली आयी थी .यह वाजपेयी का चमत्कार था कि भारत पाकिस्तान के रिश्तो पर जमी बर्फ पिघली तो कश्मीर मे लोगों को भारत को लेकर एक उमीद बनी .उस दौरे पर २४००० करोड़ रूपये का आर्थिक पकेज का ऐलान वाजपेयी ने भी किया था ,कश्मीर मे ट्रेन की कवायद तेज करने की पहल उन्होंने ही की थी लेकिन वे जानते थे कि ये तमाम पॅकेज बेकार है जब तक यहाँ राजनितिक पॅकेज नहीं दिए जायेंगे .हुर्रियत लीडर मौलाना मौलाना अब्बास अंसारी ने एक बार मुझे बताया था कि वाजपेयी का राजनीती से सन्यास उनलोगों के लिए सबसे बड़ा हादसा था .हुर्रियत के लीडर मानते है कि अगर वाजपेयी होते तो यह मसला अब तक ख़तम हो गया होता .यही बात पाकिस्तान से लौटे एक पत्रकार ने मुझे बताया था कि "पाकिस्तान मे आप जहाँ भी जाय अगर लोग ये जान गए कि आप भारत से है तो पहला सवाल वाजपेयी के लिए पूछेंगे .लोग पूछते है क्या वाजपेयी दुवारा नहीं आयेंगे"
लोगों की ये तड़प अटल जी के लिए क्यों है तो उसकी वजह जानी जा सकती है .मौजूदा प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह के कश्मीर के हालिया दौरे को लेकर यहाँ के लोगों मे भारी उम्मीदे थी .लोग प्रधानमंत्री के आर्थिक पॅकेज के लिए व्याकुल नहीं थे उन्हें यह लग रहा था कि बेलगाम अलगाववाद को नियंत्रित करने के लिए प्रधानमंत्री कुछ ऐलान करेंगे .कश्मीर मे बंद हड़ताल से अस्त व्यस्त जिन्दगी को उनके महज एक सियासी ऐलान से लोगों को काफी राहत मिल सकती थी .लेकिन प्रधान मंत्री बंद ऑडिटोरियम मे हजार करोड़ पॅकेज के ऐलान मे मशगुल रहे तो बांकी समय कश्मीरी आई ऐ एस टौपर शाह फैसल का गुणगान करते नज़र आये .प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला के पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेसन देखकर इतने गद गद थे कि उन्हें होनहार और लायक मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला मे जम्मू कश्मीर का भविष्य सुरक्षित नज़र आया .लेकिन सवाल यह उठता है कि जो प्रधान मंत्री शायद ही किसी राज्य का दौरा करते है .साल मे वे जितनी बार विदेशों का दौरा करते है उसका अगर एक फिसद मौका किसी राज्य को दे तो लोग धन्य हो जाय .ऐसे ओमर अब्दुल्ला के पॉवर पॉइंट प्रेजेटेसन को देखने कश्मीर जाने की क्या जरूरत थी .यह काम प्रधानमंत्री अपने ऑफिस मे भी कर सकते थे .देश के गृह मंत्री नक्सल समस्या से निपटने के नाम पर यह कह कर पल्ला झाड लेते है कि उन्हें इसके लिए मैंडेट नहीं मिला हुआ है तो क्या हमारे प्रधानमंत्री को किसी सियासी फैसले लेने के लिए मैंडेट नहीं मिला हुआ है ?यह एक बड़ा सवाल है .
रियासत के विकास के लिए ६७ परियोजना पर काम चल रहे है जिस पर ४६ हजार करोड़ रूपये खर्च किए जा रहे हैं । श्रीनगर के मुनिसिपल से लेकर डललेक की सफाई पर करोडो रूपये खर्च किए जा रहे है । लेकिन कश्मीर में जब देश के प्रधानमंत्री का दौरा होता है तो लोग हड़ताल पर होते है , बाज़ार बंद होते हैं , गलियां वीरान पड़ी होती है । प्रधानमंत्री का स्वागत कुछ इस तरह होता है कि अगर हिफाजत में थोडी सी ढील दी जाय तो उत्साही नौजवान प्रधानमंत्री के सामने आकर कश्मीर बनेगा पाकिस्तान का नारा लगा सकते है । आप इसे कामयाबी माने या नाकामयाबी प्रधानमंत्री का कश्मीर दौरे के समय पुरे कश्मीर में कर्फु जैसा माहोल होता है ।
पिछले पाँच वर्षों में भारत सरकार का ६० हजार करोड़ से ज्यादा खर्च शायद इस भ्रम में किया गया की विकास की रफ़्तार के सामने में अलगाववाद की आवाज धीमी पड़ जायेगी । लेकिन ऐसा नही हुआ । पैसे की बौछार से कश्मीर में रियल स्टेट में बूम है । कस्बाई इलाके में भी शोपिंग मौल खुल गए हैं । लेकिन जब भारत और पाकिस्तान का मामला सामने आता है तो वादी में जीवे जीवे पाकिस्तान की आवाज सबसे ज्यादा गूंजती है.... । क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश कि क्या पैसा कश्मीर मसले का समाधान है ? हमें यह याद रखना चाहिए कि बिहार में आज २० लाख से ज्यादा लोग कोसी की बाढ़ के कारण घर से बेघर है । इसका समाधान महज २०० -४०० करोड़ रूपये खर्च करके ढूंढा जा सकता था . कोसी पर बाँध और बराज बनाने से मिथिलांचल में विकास की रफ्तार तेज की जा सकती है ,लेकिन ऐसा नही हो रहा है ।
कश्मीर की इन राजनितिक पेचदीगियो पर राज्य के वर्तमान राज्यपाल एन एन वोहरा पिछले १० वर्षों नज़र रखे हुए है लेकिन कामयाबी के नाम पर उन्होंने जम्मू कश्मीर की मौजूदा सूरते हाल को देश को तोहफे के तौर पर दिया है । यही हाल कमोवेश पीएमओ और गृहमंत्रालय की भी है और देश के प्रधानमंत्री एक बार फिर पैसे का बौछार करके खाली हाथ वापस दिल्ली लौट आता है ।
कश्मीर का अलगाववाद मजहब के वजूद पर खड़ा है । हुर्रियत लीडर सैयेद अली शाह गिलानी का अपना तर्क है , मुसलमान होने के नाते कश्मीर सिर्फ़ पाकिस्तान का ही अंग हो सकता है । गिलानी की इस दलील को थोड़ा संशोधन करके ओमर फारूक और यासीन मालिक कश्मीर की आजादी की मांग करते है । यानि हिंदुस्तान से पैसा आ रहा है उन्हें कोई परहेज नहीं है लेकिन कश्मीर में हिंदुस्तान की सियासत नहीं चलनी चाहिए । कश्मीर में भारत की सियासत भी अजीब है , नेहरू जी के लिए कश्मीर का मतलब सिर्फ़ शेख अबुल्लाह से था , शेख साहब ने कहा हमें धारा ३७० चाहिए ,नेहरू जी ने कहा तथास्तु । शेख साहब की जिद थी कि पाकिस्तान कब्जे वाला कश्मीर पाकिस्तान के पास ही रहे , नेहरू जी ने कभी उस कश्मीर का दुबारा नाम नही लिया । शेख अब्दुलाह के बाद फारूक अब्दुल्लाह सामने आए । केन्द्र की सरकार जोड़ तोड़ करके फारूक को सिंहासन सौपती रही । फारूक से जी भरा तो मुफ्ती साहब सामने आए । उनकी बेटी पाकिस्तान के सद्र के इस बयान की आलोचना करती है की जरदारी साहब ने कश्मीर में सक्रिय आतंकवादियों को दहशतगर्द कहा था । महबूबा के लिए भी ये दहशतगर्द नही है ये जेहादी नहीं हैं । ये स्वतंत्रता सेनानी है । महबूबा जम्मू कश्मीर में अगले मुख्या मंत्री के दावेदार हैं । सोनिया जी और प्रधानमंत्री के साथ उनके बेहतर रिश्ते है .लेकिन भारत विरोधी अभियान छेड़ कर महबूबा कश्मीर मे अपनी सियासी पकड़ और मजबूत करना चाहती है . तो फ़िर कश्मीर की आजादी मांगने वालों के बीच से क्यों न मुख्यमंत्री का दावेदार ढूंढा जाय । पुराने चेहरे को सामने लाकर कश्मीरियों को चिढाने के वजाय क्या यह जरूरी नहीं है कि नए चेहरे को सामने लाया जाय । याद रहे कश्मीर में अलगावाद का जनक माने जाने वाले गिलानी साहब तीन बार एम् एल ऐ रह चुके है । हिजबुल मुजाहिद्दीन के सरबरा सलाहुद्दीन असेम्बली के चुनाव लड़ चुके हैं । ये अलग बात है कि फारूक अब्दुल्लाह के कारण उसे एम् एल ऐ नहीं बनने दिया गया । आज जरुरत है सियासी पहल की , पैकेज को भूल कर हमें एक सर्वमान्य लीडर खोजने होंगे जिसका कश्मीर के आम लोगों में पहुच हो । हमें इस गलती को भी सुधारने होंगे कि कश्मीर का मतलब सिर्फ़ वादी नहीं है , जम्मू का अपना अस्तित्वा है लदाख में भी लोग रहते है जो विशुद्ध भारतीय हैं । लेकिन केन्द्र सरकार कि ग़लत राजनीतिक फैसले ने कश्मीरी पंडित को सियासी धारा से अलग कर दिया , कश्मीर के गुर्ज्जर ,जम्मू की बड़ी आवादी , लदाख और कारगिल के लोग इस धारा से काट दिए गए । यही वजह है की महज २० फीसद सुन्नी मुसलमान की आवाज न केवल सियासी धारा को अपने साथ ले गई बल्कि भारत से आने वाले पैसे का भी जमकर लुत्फ़ उठाया है ।ये बदला हुआ कश्मीर है जहाँ सबसे बड़ा जेहादी सैयेद शालाहुदीन ६३ साल की उम्र मे अपने एक आतंकवादी कमांडर की विधवा से शादी रचा रहा है .हिंसा का दौर लगभग ख़तम हो चूका है .नौजवान एक बेहतर जिन्दगी जीने के लिये जदोजेहद कर रहा है और कामयाब भी हो रहा है .पाकिस्तान लोगों के दिलो दिमाग से बाहर है .ऐसे मौके पर देश के प्रधानमंत्री की एक छोटी सियासी पहल कश्मीर मे बाहर फिर से लौटा सकती है .

रविवार, 30 मई 2010

१२४ लोगों की हत्या के लिए माफ़ी कौन मांगेगा ?


पश्चिम बंगाल के मिदनापुर इलाके मे इस बार मओवादियो के निशाने पर मुंबई -हावरा एक्सप्रेस ट्रेन आई .जिसके चपेट मे १०० से ज्यादा लोग बे मौत मारे गए .पश्चिम बंगाल पुलिस का दाबा है की नक्सली समर्थित पी सी पी ऐ यानि पीपुल्स कमिटी अगेंस्ट पुलिस अट्रोसिटी के दस्ते का यह कुकृत्य है .यानी वह वही कमिटी है जिसने मिदनापुर के तीन जिलों मे ममता बनर्जी का आधार मजबूत किया है .माता दीदी की ट्रेन निशाने पर है लेकिन मारे जा रहे है आम लोग .भला दीदी के सेहत पर क्या फर्क पड़ता है ?.लेकिन पश्चिम बंगाल के मुनिसिपल चुनाव ने ममता दीदी की मुश्किलें बढा दी है .सो ममता कह रही है कि कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है यानि इस हादसे की जिम्मेदारी राज्य सरकार को लेनी चाहिए .जब की राज्य सरकार सारा दोष ममता के सर डाल रही है और नाक्साली चुप चाप तमाशा देख रहे है .राजधानी एक्सप्रेस से लेकर कई गाड़िया मिदनापुर इलाके मे नक्सालियों के सोफ्ट टार्गेट बने है लेकिन हर बार ममता दीदी ख़ामोशी ही बरती है .तो क्या नक्सलियों ने अपनी रणनीति मे परिवर्तन लाया है .क्या बड़े हमले करके नक्सली राष्ट्रीय स्तर पर इसकी धमक बनाना चाहते है .लेकिन सरकार खामोश है .बीजेपी कह रही है कि नक्सली राष्ट्रीय समस्या है लेकिन केंद्रीय गृह मंत्री कह रहे है कि उन्हें नक्सलियों के खिलाफ अभियान छेड़ने के लिए मैंडेट नहीं मिला हुआ है .ये मैंडेट वे किससे मांग रहे है यह एक बड़ा रहस्य है .हालत यह है कि दंतेबाड़ा मे नक्सली हमले मे  सी आर पी ऍफ़ के ७६ जवानों की मौत से आह़त गृह मंत्री चिदंबरम ने कहा था कि बक स्टॉप विथ मी यानि बड़ा दिल दिखाते हुए इस नाकामयाबी कि जिम्मेदारी खुद पर ली थी लेकिन ठीक एक हफ्ते के बाद उसी दंतेबाड़ा मे नाक्साली हमले मे मारे गए ५६ एस पी ओ और आम आदमी को लेकर गृह मंत्री ने जम कर राज्य सरकार की खिचाई की .आखिर एक ही हप्ते मे  क्यों बदल गए है गृह मंत्री ?यह उनकी राजनितिक मजबूरी है या फिर आलाकमान का दवाब .आज अगर नक्सल समस्या को लेकर कांग्रस नेता द्विगविजय सिंह अगर चिदम्बरम को नशिहत दे रहे है तो समझा जा सकता है कि कहानी मे दर्द कहाँ है ?
पिछले वर्षो मे नक्सली हमले का जायजा ले तो हर साल नक्सली तक़रीबन १५०० वारदातों को अंजाम दे रहा है जिसमे ७००-८०० के करीब आम आदमी मारे जा रहे है .इस साल के आंकड़े पर गौर करे तो तक़रीबन ५ से ७ लोग हर दिन नक्सली हमलों के शिकार हो रहे है .लेकिन सरकार की ओर से राजनीती का सिलसिला जारी है .नक्सल समस्या को जानने की कोशिशे जारी है .नक्सल के खिलाफ किस तरह का ऑपरेशन हो और इसकी जिम्मेदारी कौन ले ,इसपर भी बहस जारी है .यह बहस प्रधान मंत्री के कार्यालय से लेकर क्लबो और फैव स्टार होटलों मे चलाये जा रहे है लेकिन ठोस पहल अभी कोसो दूर है .यानी जिस तरह पिछले वर्षों मे कश्मीर की आतंकवादी समस्या को लेकर कई दूकाने खुली ठीक उसी तरह नक्सल समस्या को लेकर दुकाने सजाई जा रही है .आईडिया बेचने के लिए हर के पास कुछ न कुछ जरूर है .
लेकिन इन तमाम बहस को पीछे छोड़ते हुए एक कुशल युद्ध विशेज्ञ की तरह नक्सली न केवल अपना आधार मजबूत कर रहा है बल्कि सरकार को हर मोर्चे पर शिकस्त दे रहा है .यानी बड़ी ही चतुराई से नक्सली इस जंग मे केंद्र सरकार को चुनौती दे रहा है और नोर्थ ब्लोक मे बैठे कमांडर इन चीफ बचाव की मुद्रा मे कोई न कोई बहाना ढूंढ़ रहा है .अगर आप नक्सलियों का कश्मीर के आतंकवादियों के साथ तुलना करे तो नक्सली कई मामले मे उनसे २० है .यानी सुरक्षावालों  के खिलाफ कारवाई मे नक्सली को  कोई नुकसान नहीं उठाना पड़ रहा है .अगर नुकसान की तुलना करे तो १० जवानों की मौत के बदले नक्सली अपने एक या दो कैडर खोता है .जबकि हर नक्सली हमले के बाद सुरक्षावालों को अपना कैम्प बदलने या बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ता है .कश्मीर मे आज आतंकवादी और सुरक्षवालो के बीच मौत का अंतर १:३३ है जबकि नक्सल प्रभवित राज्यों मे यह आंकड़ा १०:१ है .लेकिन सरकार के सामने कोई रणनीति नहीं है .खास बात यह है कि वोट की सियासत नक्सलियों को और मजबूत कर रही है .पश्चिम बंगाल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है .
ये ममता दीदी का मिदनापुर  है या माओवादी दादा का ठीक ठीक कहना थोड़ा मुश्किल है लेकिन यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि यह अव्यवस्था का लालगढ़ है । बस्तर के बाद यह नक्सालियों का सबसे बड़ा लिबरेटेड जोन बना और सरकार को मजबूरन करवाई करनी पड़ी । ३० साल के वामपंथी सरकार की अव्यवस्था का जीता जगता सबूत है लालगढ़ । पिछलेसाल  से नक्सली बुद्धदेव सरकार को खुली चुनौती दे रहे है  । लालगढ़ में नाक्साली रैली निकाल रहे थे प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे और राज्य सरकार चुपa चाप तमाशा देख  रही थी तो माना जा सकता है कि सरकार ने नक्सालियों के आगे हथियार डाल दिया था । या यु कहे कि ममता की खौफ ने वाम सरकार के हाथ पैर बाँध दिए थे । वाम पंथी सरकार चाह रही थी कि केन्द्र करवाई करे और राज्य सरकार तमाशा देखे । कम्युनिस्ट पार्टी का आरोप है कि ममता ने माओवादी से मिलकर राज्य सरकार के ख़िलाफ़ साजिश रची है ,लेकिन सवाल यह है क्या ममता का पश्चिम बंगाल मे इतना असर है कि १००० से ज्यादा गाँव ,कई जिले वाम सरकार से नाता तोड़कर नक्सालियों के शरण में चले गए । अगर वाकई ऐसी हालत है तो सरकार को इस्तीफा देना चाहिए क्योंकि सरकार से लोगों का भरोसा उठ गया है ।
३० साल के वामपंथी शासन  की कामयाबी के रहस्यों से मिदनापुर  ने परदा उठा दिया है । यानि लोगों ने बुद्धदेव सरकार के फ्रेंचैजे पॉलिसी को नकार दिया है । और इस फैसले में लोगों का साथ दिया है नक्सालियों ने । नरेगा में किस आदमी को काम मिलेगा ,किसको पैसे मिलेंगे किसे घर मिलेगा, किसे राशन कार्ड मिलेंगे किसे नही ये वहां सरकारी कर्मचारी तय नही करते है  बल्कि ये फ़ैसला वाम दल के कार्यकर्त्ता लेते है । नदीग्राम से लेकर लालगढ़ तक लोगों के गुस्से को ममता ने हवा दी तो नक्सालियों ने ममता की झोली में वोट डाल कर अपने लिए दूसरा लिबरेटेड ज़ोन बना लिया । यह सियासी लेन देन का सौदा है ।आज ममता दीदी के ट्रेन को निशाना बनाकर नक्सली अपना दाम मांग रहे है .यानी मुफ्त की मलाई नक्सली ममता दीदी को किसी भी सूरत मे खाने नहीं देंगे .लेकिन खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है .
नाक्साल्बाड़ी में अपनी हार से आह़त मओवादिओं को ३० साल बाद बंगाल में अपना आधार मजबूत करने का मौका मिला है । माओवादी की विचारधारा आज भी वही है जो ३० साल पहले  चारू मजुमदार ने दिया था । लेकिन वाम दल भले ही ऑफिस में लेनिन और माओ की तस्वीर लगाते हों लेकिन व्यवहार में उनका रबैया किसी सामंती से कम नही है । सत्ता और सरकार पाने और बनाये रखने के लिए वामपंथी सरकार ने बंगाल से लेकर केरल तक जो हथकंडे अपनाए वही प्रयोग आज दूसरी जमात भी दुहरा रही है ।
३२ साल पहले नक्सली  सामंती विरोध का नारा देकर अपने लिए सत्ता पाने का आसन तरीका खोजा था । बन्दूक से सत्ता पाने का यह तरीका लोगों ने पसंद नही किया और नक्सली  आन्दोलन की भ्रूण हत्या हो गई । लेकिन इस दौर में भ्रष्टाचार और  ,सरकारों की ऑर से आम आदमी की लगातार उपेक्षा ने नक्सालियों को फिनिक्स बना दिया है । देश के नक्सली प्रभावित ८० जिलो मे शिशु मृत्यु दर ५० फिसद से ज्यादा है .हस्पतालों का वहा कोई नामोनिशान नहीं है .इन जिलों के तकरीबन २०००० गाँव मे आज भी न कोई स्कूल है न ही कोई पक्का माकन .सड़कों का तो इन इलाकों मे नमो निशान नहीं है .इंडिया शायनिंग का यह बदसूरत चेहरा कई संस्थाओं ने दिखाया है लेकिन हर बार सरकार बड़ी बड़ी योजनाओं की बात करके मूल समस्या से मूह मोड़ लेती है .केंद्र सरकार कहती है कि ग्रामीण इलाके के विकास के लिए भरपूर फंड दिए जा रहे है लेकिन पैसा कहाँ जाता है यह उन्हें नहीं पता है .देश मे गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को सस्ते दर पर अनाज उपलब्ध कराने की बात की जा रही है लेकिन राशन कार्ड इन गरीबों के बदले उन्हें मिले हुए है जो आर्थिक रूप से संपन्न है .एक शर्वे के मुताबिक ४० फिसद से ज्यादा रासन कार्ड फर्जी है .उत्तर प्रदेश मे सार्वजनिक वितरण प्रणाली मे हुए करोडो रूपये के घोटाले का क्या हुआ यह अब तक रस्य बना हुआ है .लेकिन सरकारी महकमा यह दलील देता है इन पिछड़े इलाके मे नक्सली काम होने नहीं देते या फिर हर प्रोजेक्ट मे अपना हिस्सा मांगते है अगर बहती गंगा मे नक्सली अपना हाथ धो रहे है तो इसके कौन जिम्मेदार है यह सवाल पूछा जा सकता है .यानी भ्रष्टाचार के आकंठ मे डूबा यह देश आज अगर नक्सली हमलों से कराह रहा है तो इसका जिम्मेवार सिर्फ इस देश की राजनीती है
इस देश की गरीबी ने  नक्सलियों को ऐसी उर्बरा ज़मीन दी है कि आज जिन इलाके मे जहाँ सबसे ज्यादा गरीबी है नक्सलियों को वहां उतना ही ज्यादा दवदबा है  .नक्सली इस बात को अच्छी तरह जानते है कि नेपाल और भारत मे काफी अंतर है वो यह भी जानते है कि नेपाल मे आर्म्स रेवोलुसन के जरिये सत्ता पाना नेपाली माओवादियों के लिए आसन था ,भारत मे यह प्रयोग कभी संभव नहीं है .यही वजह है कि नक्सलियों ने बातचीत से लेकर चुनाव के प्रक्रिया मे शामिल होने की हर पेशकश को ठुकराया है .उसे यह भी पता है इस देश मे वोट और सत्ता के भूखे नेता उसका कभी कुछ बिगाड नहीं सकते .ममता दीदी को पश्चिम बंगाल मे सत्ता चाहिए तो उन्हें हर हाल मे नक्सलियों का बचाव करना होगा .छतीसगढ़ से लेकर झारखण्ड मे कांग्रेस को अपना आधार बढ़ाना है तो इन राज्यों के कोंग्रेसी नेता को नक्सल के खिलाफ अभियान को रोकने होंगे .बिहार मे अगले साल चुनाव है तो नितीश जी गृह मंत्री को ज्यादा न बोलने की नशिहत दे रहे है .लेकिन सबसे बड़ा हादसा यह है कि नक्सल के खिलाफ अभियान के मजबूत कप्तान और  गृह मंत्री चिदम्बरम खामोश हो गए है .

रविवार, 2 मई 2010

कश्मीरी नौजवानों के हाथों यह पत्थर किसने पकडाया है ?

घर से ऑफिस निकले शफीक अहमद शेख को नहीं पता था कि अगले चौक पर कुछ पत्थर वाले उनका इंतजार कर रहे है .जैसे ही उनकी मिनी बस मगरमाल बाग पहुची एक पत्थर सीधे बस की ओर उछाला गया .ओर सीधे चोट शेख के सर पर लगी .कुछ ही पल में शेख सदा सदा के लिए खामोश हो गए .
बारामुला के अब्दुल अजीज अपने ११ दिन के बच्चा इरफ़ान को हस्पताल ले जा रहे थे लेकिन उन्हें हस्पताल नहीं जाने दिया गया एक उत्साही नौजवान ने एक पत्थर उछाला और पल भर में वह दिन का बच्चा दम तोड़ गया .यानी पत्थर के खेल के शौकीन कश्मीर का नौजवान पत्थरों से लोगों की जान ले रहे है लेकिन सियासत ऐसी कि हुकूमत पत्थर वाजों को रोक नहीं पा रही है और सियासी नेता इसे नौजवानों की हतासा मान रही है .यानि पत्थर युग में पहुच चूका कश्मीर एक नयी संस्कृति को अपना लिया है .
हर जुम्मे के दिन पत्थर वाजी का यह आम नज़ारा होता है .श्रीनगर के जामा मस्जिद के इलाके ,पुराने बारामुला और सोपोर मे अचानक हर शुक्रवार को चौराहे पर एक महफ़िल सजाई जाती है जिसमे उत्साही नौजवानों की टोली हाथ मे पत्थर लिए पुलिस कर्मी को आगे बढ़ने के उकसाती है .इनका नारा होता है जीवे जीवे पाकिस्तान ,हम क्या चाहते आज़ादी . कुछ ही देर पहले ही ये मस्जिदों से नमाज अदा करके ये बाहर निकले होते है .मौलवी शौकत कहते है खुदा की इवादत के बाद दरअसल आदमी सकून पाता है मन में एक शांति होती है लेकिन न जाने ये  उत्साही नौजवान मस्जिदों से क्या सीख़ कर वापस लौटते है .तो क्या अंग्रेजी दा मौलवी मिरवैज ओमर फारूक नौजवानों को मस्जिद नमाज के लिए बुलाते है और उनके जेहन मे जहर भरकर उन्हें पत्थर वाजी के लिए उकसाते है .या फिर बुजुर्ग हुर्रियत लीडर नमाज पढने के बहाने हर शुक्रवार को लोगों को किसी मस्जिद मे इकठा करते है और फिर उस भीड़ को भड़का कर गायब हो जाते है .तो क्या पत्थर वाजों के यही नायक है तो क्या इन पत्थर वाजों के हाथों हुई मौत का जिम्मेवार इन्हें नहीं मानना चहिये ?क्या दंगा भड़काने के सजा इन्हें नहीं मिलनी चाहिए ?लेकिन हुकूमत खामोश है .
पी डी पी की नेता महबूबा मुफ्ती कहती है कि हुकूमत को यह तय करना है कि इन पत्थर वाजों को सरकारी खर्चे पर भारत दर्शन की यात्रा पर भेजे या इन पथ्तःर्वाजों को कानून के दायरे में लायें .लेकिन यही महबूबा अगले दिन नौजवानों की गिरफ्तारी को इंसानी हकूक के खिलाफ बताती है .दरअसल यह पत्थर वाजी यहाँ के नौजवानों ने फिलिस्तीन के नौजवानों से सीखी है .इनके लीडरों ने इन्हें बताया है कि फिलिस्तीन में नौजवानों ने अपने इंतिफादा के लिए पत्थर वाजी को सबसे कारगर हथियार बनाया था . अमरनाथ ज़मीन के मामले मे उठा विवाद को अलहदगी पसंद लीडरों ने इंतिफादा माना और नौजवानों के हाथों पत्थर पकड़ा दिया .नौजवान मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला अपनी बेचारगी दिखाते हुए इन पत्थर वालों को कुछ इस तरह बचाव करते है कि "हमारी पुलिस व्यवस्था ने दहशतगर्दों से लड़ने की ट्रेनिंग ली है वे आतंकवादी से तो लड़ सकते है लेकिन इन पत्थर वालों से कैसे लड़ा जाय वह समझ नहीं पायी है .
लेकिन मुख्यमंत्री यह भी मान रहे है कि पत्थर वाजी  कश्मीर मे एक बड़ा कारोबार भी बन गया है .इसे जारी रखने के लिए लाखो करोडो रूपये के फंड मुहैया कराये जा रहे है .लेकिन सवाल यह है कि इस साजिश को नाकाम बनाने मे सरकार क्यों कामयाब नहीं हो पा रही है .इसमें कोई दो राय नहीं कि ये पत्थर वाजी एक बड़ी साजिश का हिस्सा है .कश्मीर मे दहशत गर्दी की आंधी थमी तो इसे एक नए शकल मे पेश किया जा रहा है .खास बात यह है कि यह फ़ॉर्मूला दहशतगर्दों के फोर्मुले से ज्यादा खतरनाक है .पिछले साल इन पथार्वाजों मे १६ साल का नौजवान इनायत खान और १७ साल का फारूक पुलिस के शेलिंग से मारा गया .जाहिर है इस मौत की तीखी प्रतिक्रिया हुई और कश्मीर के प्रमुख शहरो को हफ्ते भर बंद रखा गया .यानी भारत के खिलाफ भड़काने की जो साजिश पाकिस्तान अरबो खरबों खर्च कर  नहीं कर पाया उसे अलहदगी पसंद की सियासत लाख दो लाख मे अंजाम दे रही है .जमा मस्जिद के इलाके मे माता पिता को यह पता है कि उनका बेटा जींश लगाकर और रेबोक के जूते पहनकर मस्जिद नमाज पढने नहीं जा रहा है बल्कि वह पत्थर वाजी करने जा रहा है ,लेकिन उसे रोका नहीं जा रहा है .तो क्या यह नहीं माना जाय कि कानून यहाँ अपना काम नहीं कर रहा है या कानून की  धार कमजोर साबित हुई  है .शैयद अली शाह गिलानी कहते है कि विरोध प्रदर्शन का यह मजबूरी मे नौजवानों ने तरीका अपनाया है .हिजबुल मुजाहिद्दीन के सरगना सैयद सल्हुदीन कहते है कि पत्थर वाजी को  गैर इस्लामी मानने वाले ढोंग कर रहे है .कश्मीर के कई उलेमाओं ने बाकायदा फतवा जारी करके इस पत्थर वाजी की निंदा की है और इसे पवित्र कुरान के आदर्शो के खिलाफ बताया है . फिर किस मजहब  की दुहाई गिलानी और ओमर फारूक दे रहे है किस मजहब के बिना पर सल्हुद्दीन जेहाद कर रहे है .यानि कश्मीर मे जो कुछ भी हो रहा वह सिर्फ ढोंग है .मजहब के नाम पर इंतिफादा करने वाले ,आज़ादी मांगने वाले सिर्फ पैसे के लिए जेहाद कर रहे है तो सियासत करने वाले दूसरी जमातो का सरोकार भी पैसे से ही है .पत्रकार परवेज़ कहते है कि कश्मीर मे लोग अब इन हिंसा ,हड़ताल ,और अलहदगी पसंद सियासत की परवाह नहीं करते उन्हें सिर्फ पैसा चाहिए चाहे वह पैसा आर से आये या पार से .लोग जानते है कि कश्मीर में जब तक हिंसा का दौर है तब तक भारत की ओर से खजाने खुले रहेंगे .इसलिए गिलानी साहब को लोग अपना लीडर माने या न माने उन्हें इस बात का यकीन है जब तक कश्मीर मे अलहदगी पसंद की सियासत है तब भ्रष्टाचार का बोलबाला है तब तक लूट का बाज़ार गर्म रहेगा .
मैंने कश्मीर के अपने एक मित्र से  पूछा था क्या वाकय मे लोग अब हिंसा और बंद की सियासत से तंग आगये है .उसने कहा था यह कहना सरासर झूठ होगा .कश्मीर मे शांति लौटे यह कोई नहीं चाहता ,न ही यहाँ की हुकूमत ,न ही फौज ,न ही केंद्र सरकार .न ही यहाँ के लोग क्योंकि इनमे हरका सरोकार पैसे से है .हालत बदलने की इच्छा ,शांति की कामना सिर्फ यहाँ की माँ को है जिनके बच्चे जाने अनजाने हिंसा के शिकार हो रहे है .अमन की दरकार अगर एक बाप को भी नहीं है तो कह्सकते है कि कश्मीर पत्थर युग में लौट चूका है .

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

अप्रैल फूल :आज से हर बच्चे को होगा शिक्षा का अधिकार


आज से हर बच्चे को होगा शिक्षा का अधिकार ,यानी कोई भी बच्चा या उसके माता पिता शासन से अपने बच्चो की पढाई लिखाई की व्यवस्था करने को कह सकता है . और शासन की यह जिम्मेदारी होगी कि उन बच्चो के लिए स्कूल की व्यवस्था कराये .शिक्षा बच्चों का मौलिक अधिकार होगा ,यानि इस अधिकार को लागू करवाना सरकार की वाध्यता होगी . लेकिन मेरे एक मित्र का फोन ने इस क्रन्तिकारी खबर पर एक ही पल मे पानी फेर दिया था .
राजधानी दिल्ली मे जिस वक्त प्रधानमंत्री इस एतिहासिक फैसले का एलान कर रहे थे ठीक उसी वक्त दिल्ली से महज ६ कि मी दूर गाज़ियाबाद ,शालीमार गार्डेन के तकरीबन २५० अभिवाक /माता -पिता अपने अपने बच्चो के स्कूल से निकाले जाने की खबर के साथ घर वापस लौट रहे थे .उनकी यह चिंता है कि अब अपने बच्चो का दाखिला कहाँ दिलावे . बच्चो के माता पिता का कहना है कि उन्होंने खेतान पब्लिक स्कूल के अनाप सनाप फ़ीस बढ़ोतरी का विरोध किया था ,लेकिन प्रबंधन ने अपना सख्त रबैया अपनाते हुए विरोध के स्वर को ही दबा दिया .मै जिस इलाके की बात कर रहा हूँ उस इलाके की आवादी ३ लाख से ज्यादा होगी लेकिन इस पुरे इलाके मे एक भी सरकारी स्कूल नहीं है .एक भी सरकारी अस्पताल नहीं है .रही बात स्कूलों की तो विकास प्राधिकरण की मेहरवानी से पार्को और सरकारी ज़मीन पर स्कूल बनाने की छूट कुछ पुजीपतियो ने ले ली लेकिन गरीब बच्चो के ओर से इन स्कूलों ने अपना मुह मोड़ लिया .आज अगर दिल्ली के आस पास इलाके मे शिक्षा को लेकर शासन और व्यवस्था का यह आलम है तो आप प्रधानमंत्री के इस क्रन्तिकारी फैसले के भविष्य का आकलन कर सकते है .
इस समय तकरीबन २२ करोड़ बच्चे है जिसे प्राथमिक शिक्षा की जरूरत है .इसमें से ४ करोड़ से ज्यादा बच्चे शिक्षा की इस कड़ी को तोड़कर मजदूरी मे लगे हुए है .यानि ४ करोड़ से ज्यादा बाल मजदूर अपने और परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी उठाये हुए है .लेकिन सरकार की यह जिद है कि इन तमाम बच्चो को स्कूल वापस लाये .यानी जिन परिवारों के रोजी रोटी का जरिया बाल मजदूर बन गए है उन्हें पहले भूख से आज़ादी दिलाये .लेकिन तमाम कड़े कानूनों के वाबजूद अगर बाल मजदूरी तेजी से फल -फूल रहे तो यह माना जायेगा की सरकार का यह क्रन्तिकारी फैसला भी एक दिन पानी मांगने लगेगा .

एक अनुमान के मुताबिक शिक्षा के इस अधिकार की बात को जमीन पर उतरने के लिए सरकार को तकरीबन २ लाख करोड़ रूपये जुटाने होंगे .इस मद मे वित् आयोग ने २५००० करोड़ रूपये राज्यों को देने की बात की है ताकि इस कानून को सख्ती से लागु किया जा सके .लेकिन सवाल यह उठता है कि सरकार के पास स्कूल है नहीं .स्कूल है तो अध्यापक नहीं है फिर इस कानून का क्या होगा .जहाँ सरकारी स्कूल नहीं है लेकिन कुकुर मुत्तो की तरह प्राइवेट स्कूल खुले है लेकिन गरीब के बच्चो के लिए उनके पास जगह नहीं है .अगर मौजूदा कानून इन प्राइवेट स्कूलों मे गरीब के बच्चो का नामांकन नहीं दिलवा पाया तो क्या शिक्षा के अधिकार के जोर पर खेतान ,डीपीएस ,गोयनका ,जेविर्स ,टगोर जैसे नामी गिरामी स्कूल अपने दरवाजे गरीब बच्चो के लिए खोल देंगे इसमें शक है .आज तमाम बड़े उद्योग पतियों के लिए स्कूल एक बड़ा कारोबार है .जिसके जरिये ये स्कूल शिक्षा नहीं ख्वाब बेचते है .जहाँ माता पिता को यह आश्वस्त किया जाता है कि तुम पैसे दो बदले मे तुम्हारे बच्चे को गाड़ी और बंगले वाली नौकरी मिलेगी .हमारे एक सहयोगी भुवन पन्त अपने तनख्वाह की आधी से अधिक हिस्सा अपने एक बच्चा पर खर्च करता है .इस उम्मीद से कि अंग्रेजी स्कूल से पढ़कर उनका बच्चा एक हैसियत वाली नौकरी जरूर पा लेगा .पन्त जी को आरक्षण का पेंच पता है सो वो सरकारी नौकरी का ख्वाब नहीं देखते है लेकिन उन्हें इस बात का एहसास है कि अंग्रेजी की ताक़त से वह सम्माननीय जिन्दगी जरूर जी लेगा .औसतन भारतीय के इसी सम्मानीय जिन्दगी की चाहत को प्राइवेट स्कूलों ने  कैश किया है .गाँव से लेकर शहरों तक तथाकथित अंग्रेजी स्कूलों की बाढ़ आ गयी लेकिन गरीब बच्चो के लिए स्कूल नहीं खुल सके .
मिड डे मील की सरकारी योजना ने ग्रामीण इलाके मे बच्चो को स्कूल आने के लिए प्रेरित किया लेकिन नक्सल प्रभावित राज्यों मे यह योजना भी दम तोडती नज़र आई .सरकारी प्रयास से केबल बस्तर इलाके मे लगभग १.५० लाख बच्चो को स्कूल लाया गया .लेकिन पिछले साल इन बच्चो मे से ७५ हजार बच्चे स्कूल छोड़ चुके थे यानी दो पहर का भोजन का आकर्षण भी बच्चो को स्कूल नहीं बाँध पाया .या फिर यह भोजन सिर्फ कागजों पर परोसे जाते रहे और बच्चे भूखे रहे .यह योजना तब कामयाब हो सकती थी जब पके पकाए भोजन के बदले बच्चो को अनांज मिले जिस से बच्चे के साथ उनके माता पिता की भी भूख मिटे .जाहिर है भूख से आहात माँ बाप अपने बच्चे को अनाज लेन के लिए ही सही लेकिन उन्हें स्कूल जरूर भेजेंगे .लेकिन सरकार यह नहीं करेगी क्योकि इस योजना मे गरीबों से ज्यादा स्वार्थ दलालों के है यानि बगैर दलाली के योजना चल नहीं सकती .
सवाल यह है कि देश का संविधान हर किसी के मौलिक अधिकार की रक्षा की पूरी गारंटी देता है .भारत के न्यायलय जागरूक पहरेदार की तरह इन अधिकारों की रक्षा के लिए तत्पर है तो क्या कल लोग अपने बच्चो के स्कूल दाखिले के लिए अदालत के दरवाजे खटखटाएंगे .क्या जो लोग भूख के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद नहीं कर पाए वे लोग अब अपने बच्चो के स्कूल के लिए आवाज उठाएंगे ?ऐसा सोचना भी निरर्थक होगा .फिर इसका समाधान क्या हो ? इसका समाधान कभी रूस ने ढूंढा था ,वहां सभी बच्चे सरकारी स्कूलों मे पढ़ते है .वहां हर बच्चे का एक ही स्कूल ड्रेस है ,एक ही पाठ्यक्रम है .यानि प्रतिभा को उभारने का प्रयास हर को मिला हुआ है .सरकार अगर शिक्षा के अधिकार से सबको खुश करना चाहती है तो क्या  हर को समान अवसर की गारंटी देगी .क्या जिन बच्चो ने सरकारी स्कूलों मे तालीम ली है उसे कभी प्राइवेट स्कूलों के समक्ष खड़ा कर पायेगी .शिक्षा मे आमूल चूल परिवर्तन लाने के कपिल सिब्बल के इरादे पर शंका नहीं जाहिर किया जा सकता लेकिन शिब्बल साहब के साथ दिक्कत यह है कि उन्होंने शहरी चकाचोंध और प्राइवेट स्कूलों की शिक्षा देखी है ,उन्होंने उन हजारो बच्चो का दर्द नहीं देखा है जिन्होंने ४-५ कि मी दुरी रोज तय करके स्कूली शिक्षा पूरी की है ,जिन्होंने आधे पेट खाए अपनी पढाई जारी रखी. लेकिन इस पढाई के बाद भी अगर ये एक छोटी नौकरी लेने के लायक नहीं हो पाए तो इसमें उनका क्या दोष था .क्या इस व्यवस्था की खामियों को कपिल शिब्बल दूर करेंगे .अगर वो ऐसा नहीं करते है तो यह कहा जायेगा की उनकी सरकार सिर्फ राजनीती कर रही है .शिक्षा मे सुधार सिर्फ सियासी पैतरा है .

रविवार, 21 मार्च 2010

पानी के लिये होगा भारत -पाकिस्तान के बीच तीसरा युद्ध


कहते है कि पानी रे पानी तेरा रंग कैसा ,लेकिन यह पानी अगर सियासत के रंग में रंग जाय  तो क्या कहने . आतंकवाद के मामले को लेकर पानी पानी हुआ पाकिस्तान ने  एक बार फिर पानी को लेकर अपने जेहादिओं को आगे किया है .पिछले दिनों लश्करे तोइबा के सरगना हाफिज़ मुहमद सईद ने पानी को लेकर भारत के खिलाफ जेहाद करने की बात की है .हाफिज़ मोहमद सईद का यह बयान पाकिस्तान के फोजी जनरल अशफाक कियानी के बयान के ठीक एक दिन बाद आया जिसमे उन्होंने भारत पाकिस्तान के बीच पानी को एक बड़ा मसला माना था . यानी पाकिस्तानी फौज के लिए अब कश्मीर का मामला अब अपना असर खो रहा है .पाकिस्तान के लोगों मे कश्मीर को लेकर अब उतनी दिलचस्पी नहीं है ,सो पाकिस्तानी फौज क्या बेचे तो उन्होंने पानी का मसला उठाकर लोगों के दुखते नब्ज पर हाथ रख दिया है .
इन्डस वाटर ट्रिटी के तहत भारत और पाकिस्तान के बीच एक अंतर्राष्ट्रीय आयोग मौजूद है जो दोनों देशो के बीच पानी के बटवारे पर अपना फैसला देता है .लेकिन पाकिस्तन वाटर कामिसन को नजरंदाज करके लश्करे तोइबा को आगे किया है .यानि पानी के मामले मे अब पाकिस्तान की हुकूमत बात नहीं करेगी बल्कि यह लड़ाई पाकिस्तानी फौज लश्करे तोइबा के जरिये लड़ेगी . सवाल उठता है कि कौन है यह लश्करे तोइबा क्या सम्बन्ध है इसका पाकिस्तानी फौज से ? दुनिया भले ही लश्करे तोइबा को पाकिस्तान का नॉन स्टेट एक्टर माने लेकिन हकीकत यह है कि यह लश्कर पाकिस्तान फौज की अग्रिम पंक्ति का दस्ता है ,यानि चेहरे के रूप मे भले ही हाफिज सईद सामने हो लेकिन परदे के पीछे इसका नेतृत्वा पाकिस्तानी फौज के ऑफिसर ही कर रहे है .
रिचर्ड कोलमेन हेडली मुंबई हमले का सूत्रधार !अमेरिका की  जांच एजेंसी इसे लश्कर ऐ तोइबा का आतंकवादी मानता है . पाकिस्तान का यह मूल निवासी क्या भारत के खिलाफ जिहाद के लिए ताना बाना अमेरिका से बुनता था .और अमेरिकी जाँच एजेंसी चुप चाप तमाशा देख रही थी ? जाहिर है इस आतंकवादी का इस्तेमाल अमेरिकी एजेसी अपने मतलब के लिए करती थी ,लेकिन उसने अमेरिका को भी धोखा दिया और उसके कई नागरिक मुंबई हमले मे शिकार हुए . तो क्या हेडली और राणा जैसे आतंकवादी का लीडर हाफिज़ सईद हो सकता है ?क्या मदरसा के भोले भाले अनपढ़ लोगों को जिहादी बनाने वाले मौलवी अब पढ़े लिखे सभ्रांत घरानों के लोगों को जिहादी बाना रहा है ? यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि इन जिहादियों का लीडर कोई और है जो परदे के पीछे है .जाहिर है इसका नेतृत्वा पाकिस्तानी फौज कर रहा है . भारत से हेडली को दूर रखने की साजिश इस बात को और पुख्ता करती है .
प्रधानमंत्री गिलानी और राष्ट्रपति जरदारी को पीछे धकेलते हुए फौजी जनरल कियानी ने भारत के खिलाफ पानी को लेकर मोर्चा खोला है .पाकिस्तान मे यह कहावत काफी मशहूर है कि वहां फौजी जनरल या तो गद्दी पर होता है या फिर हुकुमरान के बाजू मे बैठा होता है . यानि आज भी पाकिस्तान मे वही चलेगा जो वहां पाकिस्तान की फौज चाहेगी .अमेरिका यह बात अच्छी तरह जनता है सो अमेरिका से पाकिस्तान जाने वाले दूत पाकिस्तान मे अपना ज्यादा वक्त जनरल कयानी के साथ गुजारते है .ओबामा की पाक -ऍफ़ निति का कर्ताधर्ता जनरल कियानी को ही बनाया गया है .लेकिन हम आज भी भारत पाकिस्तान के बीच सम्बन्ध सूधारने की उम्मीद  गिलानी और जरदारी से करते है .इन्डस वाटर ट्रिटी पर सवाल उठाकर फौजी जनरल ने भारत को एक संकेत जरूर दे दिया है .

भारत -पाकिस्तान के बीच इन्डस वाटर ट्रिटी के तहत जम्मू कश्मीर से निकलने वाली तीन नदियों सिंध ,झेलम और चेनाव के पानी का इस्तेमाल की इजाजत पाकिस्तान को मिली है ,जबकि सतलज ,व्यास और रावी के पानी पर भारत का अधिकार है .इन्डस वाटर ट्रिटी के मुताबिक १३५ मिलियन एकड़ फीट पानी मे से भारत ३.६ मिलियन एकड़ फीट पानी का इस्तेमाल संग्रहण या फिर सिचाई के लिए कर सकता है .वाबजूद इसके रियासत आजतक ०.८ मिलियन एकड़ फीट से ज्यादा पानी का इस्तेमाल नहीं कर पाया है . बगलिहार पॉवर प्रोजेक्ट के खिलाफ पाकिस्तान ने यह मसला वर्ल्ड बैंक मे उठाया ,वाटर कामिसन ने इसके लिए ओब्जेर्वेर नियुक्त किया .लेकिन पाकिस्तान की यह शिकायत झूठी ही साबित हुई .
तो क्या कश्मीर को लेकर पाकिस्तान की यह दिलचस्पी सिर्फ पानी को लेकर है .जाहिर है पाकिस्तान को मिलने वाले पानी का सबसे बड़ा श्रोत जम्मू कश्मीर की नदिया ही है . कायदे आज़म जिन्ना ने कभी कश्मीर को शहरग कहा था यानि वह जीवन की धारा जिसके बगैर जिन्दगी नामुमकिन है .जिन्ना का यह प्रेम कश्मीरियों को लिए नहीं था नहीं उन्हें कश्मीर को मजहब को लेकर दिलचस्पी थी . कश्मीर का मसला कल भी पाकिस्तान के लिए पानी का मसला था आज भी उसका दरकार पानी से है . मौसम के बदले मिजाज ने नदियों से पानी को चुरा लिया है .जाहिर है अब सिंध झेलम और चिनव मे पानी की वह धारा ही नहीं है तो पाकिस्तान क्या खायेगा और क्या बेचेगा
.पानी को लेकर पाकिस्तान के पंजाब ,सिंध और बलूचिस्तान के लोग आमने सामने है .सिंध दरिया पर बड़े बड़े बाँध बनाकर पंजाब ने सिंध और बलूचिस्तान के हिस्से का पानी झटक लिया .रबी के सीजन मे पंजाब के खेत आवाद हुए लेकिन सिंध और बलूचिस्तान के खेतों मे एक बूँद पानी नहीं पंहुचा .अब जब लोग इसके खिलाफ सड़क पर उतर आये है तो पाकिस्तान की फौज ने लश्करे तोइबा को आगे किया है और भारत पर पानी की चोरी का इल्जाम लगा रहा है .
 बिजली और पानी आज भी वादी मे सबसे बड़ी समस्या है .जम्मू कश्मीर अपने जल संसाधन से ४०००० मेगावाट बिजली पैदा कर सकता है ,लेकिन उसके महज ४५० मेगावाट वाली बगलिहार परियोजना पर पाकिस्तान सवाल उठा रहा है लेकिन फिर भी कश्मीर मे लोग खामोश है .अलगाववादी लीडर पाकिस्तान की पैरवी कर रहे है .लेकिन उसे बड़ा सवाल यह है कि पाकिस्तान के इस प्रोपगंडा का जवाब क्या भारत दे पा रहा है .पाकिस्तान लश्करे तोइबा का खौफ दिखाकर इस मसले पर तीसरे पक्ष को शामिल करना चाहता है .जनरल कियानी इस मसले पर भारत को घेरना चाहता है तो पाकिस्तान मे वह अपना जनसमर्थन बढा रहा है .लेकिन भारत सरकार खामोश है .इस मामले पर शशि थरूर के ट्विटर से कुछ अपेक्षा तो जरूर की जा सकती है 

रविवार, 14 मार्च 2010

2050 तक संसद मे सिर्फ महिलाये होंगी


लालू जी का माने तो वो लोकसभा मे महज ४ सांसदों के नेता नहीं है बल्कि महिला बिल से आतंकित लगभग तमाम सांसदों का नेतृत्वा करते है . लालू जी कहते है ' सत्ता पक्ष और विपक्ष के सांसद उन्हें आकर बताते है कि लालू जी कुछ करो हमलोगों ने तो अपनी सियासी मौत की पर्ची पर खुद दस्तखत की है' . बेचारे सांसद अपने नेता के खिलाफ कुछ बोल नहीं सकते .कांग्रेस मे आलाकमान का फैसला अंतिम है ,सो सोनिया जी ने अगर बिल के लिए मन बना लिया है फिर कांग्रेस मे उसे विरोध करने की जुर्रत किसको है . आखिर ये बिल राजीव गाँधी का सपना था .महिला सशक्तिकरण के नाम पर कांग्रेस पिछले १४ वर्षों से अपने चुनावी मेनिफेस्टो मे महिला आरक्षण को प्रमुख मुद्दे को तौर पर रखा है . महिलाओं के साथ अब और धोखा  नहीं हो सकता सो सोनिया जीको  अपना वचन निभाना है .बीजेपी की मजबूरी है अगर उसने कांग्रेस का साथ नहीं दिया तो महिला आरक्षण का श्रेय सिर्फ सोनिया गाँधी को मिलेगा .इसलिए महिला  आरक्षण पर बोलते हुए बीजेपी नेता अरुण जेटली ने वही खुबिया गिनाई जो कांग्रेसी नेता गिना रहे थे . ये अलग बात है कि कांग्रेसी नेता इसका श्रेय सोनिया गाँधी को देने से नहीं चुकते थे .यानी महिला आरक्षण पर कांग्रेस और बीजेपी की एक ही स्क्रिप्ट है .
लेकिन सवाल यह उठता है इस बिल से लालू ,मुलायम और शरद की तिकरी इतने दुबले क्यों होते जा रहे है .राज्य सभा मे महिला आरक्षण बिल के विरोध में लालू और मुलायम के सांसदों ने जो कमाल दिखाया वह अप्रत्यासित नहीं था बल्कि अपने जातीय और सियासी समीकरण को एक मंच देने के लिए लिए लालू और मुलायम ने इस बिल मे पिछड़ा और मुस्लिम महिला का मुद्दा उठाया .बमुश्किल २०-२५ सांसदों का नेतृत्वा करने वाली पार्टी ने अपनी हरकत से न केवल संसद को ठ़प कर रखा बल्कि पूरी मिडिया कवरेज भी पा लिया . यानी बिल के निहितार्थ को जितना लालू और मुलायम ने समझा वैसा कोई नहीं समझ सका
.लालू जी को शायद यह याद है कि ७० के दशक मे सांसद के भारी विरोध के बावजूद इंदिरा गाँधी ने बैंको का राष्ट्रीयकरण करके जनमानस मे गरीबो के मशीहा की छवि बनायीं थी .यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि ७० के दशक मे कितने लोगों का बैंक से सरोकार रहा होगा ,लेकिन हर आम आदमी को लगा कि पैसों से भरे खजाने पर उनका अधिकार हो गया है . बैंको के राष्ट्रीयकरण होने के वर्षों बाद भी देश के करोडो लोगों का  न तो इन बैंको मे खता खुला न ही बैंको से उनका लेना देना हुआ ,लेकिन लोगों को लगा कि इसमें सुरक्षित पैसा उनका है . तो क्या सोनिया गांधी इंदिरा गांधी की राह पर जा रही है ?
यही चिंता लालू और मुलायम को परेशां कर रखा है अगर सोनिया कि यह लहर चली तो टोला मोहल्ले ,गाँव क़स्बा हर जगह की औरते अपना अगला पड़ाव संसद को ही मानने लगेगी .यानी इस महिला आरक्षण से कांग्रेस वह कमाल दिखाने वाली है जो कमाल कभी गरीबी हटाओ देश बचाओ का नारा ने किया था ,जो कमाल बैंको का राष्ट्रीयकरण ने किया था .यानी आधी आवादी का अकेला नेता सोनिया गांधी बनने वाली है .
आज अगर संसद मे ५९ सांसद है तो २०१४ मे इनकी तादाद सिर्फ आरक्षण के बल पर १८१ होगी .हो सकता है कि अपने बूते चुन कर आने वाली महिला इस संख्या मे और इजाफा करदे .लेकिन लालू ,मुलायम की चिंता इससे कुछ अलग है .
सामाजिक न्याय के नाम पर कुछ निजी पार्टियों ने लोक सभा और विधान सभा को अखाड़ो मे तब्दील कर दिया है .साधू, सुभाष ,अत्तिक ,मुख़्तार ,याकूब ,ददन ,मुन्ना जैसे लोगों ने सदन की गरिमा बढाकर जनतंत्र से लोगों का भरोसा ही कम कर दिया .इलाके के छटे बदमाश ,हिस्ट्री सीटर चुनावो के जरिये सदन पहुँचने लगे . पिछले वर्षों मे लोकतंत्र के नाम पर राजनीती मे जो अपराधीकरण बढा वह रिकॉर्ड है .सामाजिक न्याय की दुहाई देने वालों के लिस्ट मे न तो कभी संघर्ष करने वाले पिछड़े समुदाय के लोग सामने आये न ही कभी मुस्लिम तबके से पढ़े लिखे लोगों को इन पार्टियों मे जगह मिली . सामाजिक न्याय के नाम पर लालू और मुलायम ने या तो अपने परिवार और रिश्तेदारों को उपकृत किया या फिर अपराधियों की एक टोली बनायीं

.क्या लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए क्या महिला आरक्षण ही एक मात्र विकल्प है ? दावे के साथ अगर नहीं भी  कहे तो इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं था .लालू और मुलायम को पता है यह आरक्षण क्रामबार होगा .यानी कभी छपरा भी महिला आरक्षण के दायरे में होगा फिर लालू कहाँ से किस्मत आजमाएंगे ? पटना और मधेपुरा के चुनाव ने यह सन्देश लालू जी को दे दिया था कि वे एक ही चुनाव क्षेत्र को अपना कर्मभूमि माने तो बेहतर है .मुलायम की यह ग़लतफ़हमी फिरोजाबाद के चुनाव ने दूर कर दी थी यानि नेता के बदले उनके बहु, उनके रिश्तेदार को अपनाने के लिए लोग तैयार नहीं है .यानि अब डिम्पल की जगह अब लोग रामपरी को भी चुनाव जीताने के लिए तैयार है .फिर इन नेताओ के रिश्तेदार का क्या होगा ? तो क्या क्षेत्रीय और निजी पार्टियों को अलग थलग करने के लिए कांग्रेस और बीजेपी ने सोची समझी चाल चली है .लालू और मुलायम का यही अंदेशा  है.
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या महिला सीट इसी क्रम मे सभी लोक सभा और विधान सभा सीटों का रोटेसन पूरा कर ले फिर संसदीय राजनीती मे पुरुषों की क्या भूमिका होगी .घरो और चूल्हों के पास बैठने वाली महिला अगर पांच साल के लिए ही सही घर के चौखट से बाहर निकलकर लोगों के बीच जाएगी ,तो क्या पांच साल के बाद वह दुबारा चौका बर्तन करने की स्थिति मे होगी ,राबड़ी देवी इसका बेहतर उदाहरण है . यानि वे सिर्फ राजनीती ही करेगी चाहे वह संसद की करे या फिर पंचायत की .यानि २०५० तक महिलाओं की एक बड़ी आवादी का सरोकार सिर्फ राजनीती से होगा .लालू और मुलायम जैसे लीडरों का यह तर्क है कि इस आरक्षण का लाभ पढ़ी लिखी महिलाए ही उठा पाएंगी ,यानि शहरो की अल्ट्रा मोडर्न महिला महिला आरक्षण पर कब्ज़ा जमालेगी .लेकिन राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाकर लालू जी ने अपना छोड़ कर किसका भला किया था .आज अगर मायावती का डंका उत्तर प्रदेश मे बजता है तो हो सकता है इस बिल का फायदा उठाकर कल  दर्जनों मायावती सामने आ सकती है .लेकिन इतना तो जरूर मानिए इस दौर मे नाम नहीं काम विकता है .लोग काम का  दाम देते है ,एक बार फिजा मे कुछ नयी तबदीली तो होने दीजिये .यह देश बगैर लालू और मुलायम के भी चलेगा एक बार इस प्रयोग को जमीन पर उतरने तो दीजिये . 

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

नक्सली हमले मे सुरक्षाबलों की मौत के जिम्मेदार कौन ?

.बिहार ,बंगाल ,छत्तीसगढ़ ,झारखण्ड और उड़ीसा मे नक्सालियों का कहर जारी है .कही इनके निशाने पर ग्रामीण है तो कही नक्सालियों को शिकस्त देने गए सुरक्षाबल मारे जा रहे है . सरकार के साथ आँख मिचौली  के खेल मे नक्सली अपनी रणनीति से सरकारों को थका रही है और हर हादसे के बाद एक दुसरे पर तोहमत लगा कर राजनितिक पार्टियाँ एक दुसरे को बौना साबित करने में जूट जाती है .
पश्चिम बंगाल मे नक्सालियों का हमला होता है तो ममता दीदी नक्सालियों से तुरंत बात करने की सलाह देती है .केंद्र सरकार को ढेर नशिहत देकर बंगाल की सियासत मे दखल न देने के लिए धमका भी जाती है .वही यह हमला बिहार मे हो तो केंद्र सरकार राज्य पुलिस व्यवस्था को लचर बताती है .यही हमला छत्तीसगढ़ मे हो तो बीजेपी सरकार की अकर्मण्यता सामने आती है . झारखण्ड की सरकार ने तो अपना रबैया पहले ही साफ़ कर चुकी है कि नक्सालियों के खिलाफ जोर दार अभियान उन्हें कतई मंजूर नहीं है .यानि हर सरकार के सामने नक्सली वो तुरुप के पत्ते है जिसका  इस्तेमाल अलग अलग राज्यों की सरकार अपने सियासी फैदे और नुक्सान को देखकर कर रही है .और केंद्र सरकार विपक्षी सरकार को नकारा साबित करने में लगी है . लेकिन राजनितिक दलों की इस सियासत से सबसे ज्यादा फायदा नक्सालियों ने उठाया है .महज पांच साल पहले नक्सालियों का अस्तित्वा महज ३३ जिलों मे था ,आज उनका विस्तार मुल्क के २४ राज्यों के २२२ जिले और उनके २००० पुलिस थाणे के ऊपर है .देश के ८० जिलों मे नक्सालियों की तूती बोलती है तो २९ जिलो मे नक्सालियों का कानून चलता है .जहाँ सरकार की कोई रिट नहीं चलती .नक्सालियों की जनादालत ,उनके दलम ,उनके संगम एक सामानांतर सरकार चला रहे है .
नक्सल आतंक के खिलाफ नवम्बर महीने से जोरदार हमले की तैयारी थी . ऑपरेशन ग्रीन हंट की तैयारी मीडिया के द्वारा छन छन कर लोगों के बीच आ रही थी . नगारे बज रहे थे मानो फाॅर्स बस्तर के जंगल में घुसेंगे और गणपति से लेकर कोटेश्वर राव तक तमाम आला नक्सली लीडरों को कान पकड़ कर लोगों के बीच ले आयेंगे . लेकिन अचानक गृह मंत्री चिदम्बरम ने इन तमाम अभियान पर पानी फेर दिया . गृह मंत्री ने कहा , ओपरेशन ग्रीन हंट मीडिया का दुष्प्रचार था . नक्सल के खिलाफ ऐसे किसी अभियान की बात सरकार अबतक की ही नहीं है . यानि कैबिनेट कमिटी ओन सिक्यूरिटी की बात एयर फाॅर्स के ऑपरेशन की बात . नक्सल प्रभावित इलाके में सेना से मदद लेने की बात .सबकुछ महज एक बकवास था खबरिया चैनल अपने मकसद के कारण ऐसी खबर चला रहे थे .यानि चिदम्बरम साहब नक्सल के खिलाफ जंग भी लड़ना चाहते है और सामने भी नहीं आना चाहते .वो राज्य सरकारों को मदद दे रहे, वे ४० से ५० बटालियन फाॅर्स नक्सल प्रभावित राज्यों को भेज रहे .उनकी फाॅर्स को राज्य सरकार के काबिल पुलिस अधिकारी अपने हिसाब से लगा रहे है .जाहिर है कभी बंगाल के मिदनापुर में नाक्साली २४ paramilitary  फाॅर्स की बेरहमी से हत्या करके चला जाता है ,तो कभी बस्तर में तो कभी झारखण्ड मे दर्जनों सी आर पी ऍफ़ के जवान बे मौत मारे जा रहे है . हर हमले के बाद राज्य सरकारों की दलील होती है ,इंटेलिजेंस फेलुएर का ,बला बला . जहाँ नक्सल के खिलाफ कोई ख़ुफ़िया जानकारी ही नहीं है उसके फेलुएर होने का क्या मतलब होता है .पिछले एक साल से कोटेश्वर राव बंगाल मे बैठकर प्रेस कांफ्रेंस कर रहे है ,सरकार को ललकार रहे है ,लेकिन पशिम बंगाल की सरकार उसे पकड़ नहीं पा रही है .लक्षमण राव छत्तीसगढ़ में है या झारखण्ड मे सरकार को कुछ नहीं पता .यानि मिस्टर इंडिया बनकर नक्सली कमांडर अपना अभियान चला रहे है और सरकार उन्हें पकड़ नहीं पा रही है .गृह मंत्री चिदम्बरम बंगाल के दौरे पर होते है ,नक्सल के खिलाफ कारवाई की समीक्षा करते है और दो दिन बाद उनके सुरक्षा वालों के कैंप को नक्सली तवाह कर चले जाते है ,जवानों को मार कर सारे हथियार लूट ले जाते है .राज्य प्रशासन की हालत समझने के लिए वहा की हालत की समीक्षा के लिए गृह मंत्री और क्या जानना चाहते है .ये तो वही जाने लेकिन सरकार की कारवाई वही होगी जो ममता चाहेंगी .
. हालत यह है कि ममता ,माओवादी ,मार्क्सवादी के बीच उलझे  मामले ने  भारत सरकार को भी एक कदम आगे और दो कदम पीछे चलने पर मजबूर कर दिया है .जरा आप छत्तीसगढ़ सरकार की तैयारी पर गौर करे
राज्य में चार किलो मीटर की दुरी पर एक पुलिस वल की मौजदगी है
नक्सल प्रभावित बस्तर इलाके में एक पुलिस     की मौजदूगी ९ किलो मीटर पर है
राज्य में नक्सल के खिलाफ अभियान छेड़ने के लिए २०००-से ३००० पोलिसवल को गुरिल्ला जंग के खिलाफ ट्रेनिंग दी गयी है ,जिसमे अधिकांश जवान राज्य के वी आई पी की सुरक्षा में तैनात है .
जंगल इलाके में खुफिया जानकारी के अभाव में ५००  से ज्यादा सुरक्षा वल मारे गए है .
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बस्तर इलाके में ९५ फीसद सड़के कच्ची है जिनमे अधिकांश जगहों पर नाक्साल्लियों का माइयन बिछे पड़े है .
लेकिन हम फिर भी राज्य सरकार से उम्मीद करते है कि राज्य सरकार अपनी लडाई खुद लड़ लेगी .

गृह मंत्री के दो चेहरे है ,मिडिया के सामने उनका व्यक्तित्वा निर्णायक लीडर जैसे उभरता है लेकिन एक्शन के मामले वे कही से शिवराज पाटिल से अलग नहीं है .गृह मंत्रालय पिछले महीनो मे पाच से ज्यादा बार मुख्यमंत्रियों की बैठके कर चूका है लेकिन हर बार वोट के आकलन मे ये तमाम निर्णय उलझ कर रह जाते है .सरकार यह मानती है कि माओवादियों का लोकतंत्र मे कोई आस्था नहीं है .सरकार यह मानती है कि नाक्सालियो के कब्जे उन्हें अपने क्षेत्र को आज़ाद कराने है .सरकार यह मानती है कि नक्सलियों का कोई सिधांत नहीं है .फिर सरकार को अपनी संप्रभुता को बहाल करने से कौन रोक रहा है .नक्सली के जनसमर्थन का अंदाजा आप इससे लगा सकते है कि पिछले वर्षों मे नक्सलियों ४०० से ज्यादा स्कूलों को बमों के धमाके से उड़ाया है .फिर भी लोग उन इलाकों मे नक्सलियों के जनसमर्थन की बात करते है तो यह कहा जा सकता है कि वे सीधे तौर पर नक्सलियों के एजेंट है जो सफ़ेद चोगा पहनकर सरकार और मुल्क को गुमराह कर रहे है .हर नक्सली हमले के बाद गृह मंत्री बुद्धिजीवियों को कोसते है .उन्हें नाक्साली हमले की निंदा करने की अपील करते है .लेकिन चिदम्बरम साहब यह भूल जाते है कि यह न तो कोई माओवाद है न ही कोई ये माओवादी .सरकार इखलाक से चलती है .सरकार को यह भरोसा देना होगा कि उनकी राज सत्ता नक्सली आतंक को कुचलने के लिए सक्षम है .इस अभियान मे ममता ,शिवू सोरेन जैसे लीडर आड़े आते है तो सरकार की सत्ता को यह तय करना होगा कि उनके लिए देश की संप्रभुता अब्बल है या फिर वोट की सियासत .

जो भी हो केंद्र सरकार रणनीति बना रही है ,तब तक हो सकता है कि कोटेश्वर राव और गणपति को ही सदबुधि आ जाय. तब तक अगर और १००० -२००० लोग मारे जाते है तो सियासत पर इसका क्या फर्क पड़ेगा .क्योंकि पिछले  वर्षों में हमने २०००० से ज्यादा लोगों को खोया है तब भी सरकार चल रही है  .गाँव से लेकर शहर तक आतंकवाद से पूरा देश भयभीत है .लाल आतंक से लेकर जेहाद का आतंक लोगों को डस रहा है लेकिन फिर भी अगर वोट की सियासत हावी है तो कह सकते है कि इसका समाधान सरकार के पास नहीं आम लोगों के पास है .आतंक के दल दल से देश को बाहर निकालने के लिए लोगों को पहल करनी होगी .

बुधवार, 27 जनवरी 2010

श्रीनगर के लालचौक का सबसे मायूस दिन


श्रीनगर का लालचौक आज खामोश है .पिछले २० वर्षों में इस चौक पर सीना ताने खड़े घंटा घर ने जितनी शर्मिंदगी अलगाववादियों के कारण नहीं झेली होगी उससे ज्यादा जिल्लत उसे हुकूमत के कारण झेलनी पड़ी . गणतंत्र दिवस पर लाल चौक पर तिरंगा नहीं फहराने के पीछे सरकार की जो भी दलीले हो लेकिन इतना तो तय है कि इस फैसले ने लाल चौक के शोर्य को धूमिल किया है .पिछले २० वर्षों में लालचौक ने दर्जनों आतंकवादी हमले के दंश सहे .दर्जनों बार पाकिस्तान का झंडा इसके सीने पर लटका दिया गया .लेकिन इन १८ वर्षों में जब कभी तिरंगा के साथ इस चौक को सजाया जाता तो वह अपने पुराने जख्मो को भूल जाता था . सरकार के कारिंदे की दलील है यहाँ झंडा फहराने की कोई परंपरा नहीं थी ,न ही यह लाल चौक कोई सियासी जलसे की उपयुक्त जगह है .लाल चौक इन दलीलों को ख़ारिज करता है .उसका सवाल है क्या मुग़ल बादशाह ने लाल किला तिरंगा फहराने के लिए बनाया था .क्या इंडिया गेट को अंग्रेजों ने गणतंत्र दिवस मनाने के लिए बनाया था . अगर किसी ने लाल चौक के शोर्य को बढ़ाने और तिरंगा के जरिये वादी के आम लोगों के जज्वात से जुड़ने की कोशिश की तो क्या यह गलत परम्परा थी .दहशतगर्दी के दौर में भी या कहे कि १९९२ में भी वादी ए कश्मीर में ऐसे लाखों लोग थे जिनका तिरंगा के साथ सरोकार था .जिनका तिरंगे के तै अटूट आस्था थी .यही वजह थी कि इन वर्षों में कई सरकारे आई गई लेकिन यह परंपरा वहां के लोगों के साथ मिलकर सुरक्षवालों ने निभाई .लेकिन आज जब सरकार अमन और शांति का दावा कर रही है फिर लाल चौक के इस सम्मान को छिनने के क्या वजह हो सकती थी .अलगाववादियों के बंद और हड़ताल ,आतंकवादियों की धमकी के बीच खाली और सुनसान पड़े श्रीनगर के इस तारीखी चौक पर सिर्फ एक लहराता तिरंगा ही तो था जो अलगाववादियों के मसूबे को फीका कर रहा था .लेकिन इस बार लाल चौक सुनसान मार्केट में अकेला अपमान का दंश झेलता रहा .

श्रीनगर के कुछ उत्साही मार्क्सवादियों ने रूस के रेड स्कुएर की तर्ज पर इस चौक का नाम लालचौक रखा था .कारोबारी शहर के बीचो बीच स्थित इस चौक की ख्याति बाद में शेख अब्दुल्ला ने भी बढ़ाई . शेख अब्दुल्ला का जनता दरवार कभी लालचौक की शान बढ़ाता था .खुद पंडित नेहरु ने इस लालचौक पर तकरीरे की है . १९७५ में यहाँ घंटाघर वजूद में आया .श्रीनगर में भारत के कोने कोने से पहुचे पर्यटकों ने इसकी शान में और इजाफा किया .लेकिन १९८९ के दौर में  पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने यहाँ की हलचल में जहर घोल दिया .लालचौक आतंकवादी गतिविधियों का केंद्र बन गया .जाहिर है बन्दूक के खौफ ने अलगाववादियों को एक सियासी आधार दिया और उनका सियासी ठिकाना लालचौक हो गया .पिछले २० वर्षों में लालचौक ५ साल बंद रहे .सैकड़ों मासूमो को इस चौक ने अपने आँखों के सामने आतंकवादियों की गोलियों से छलनी होते हुए देखा है .बाद में इस चौक की सुरक्षा की जिम्मेवारी पहले बी एस ऍफ़ ने बाद में सी आर ऍफ़ ने सँभाल ली .लेकिन हमलों का दौर जारी रहा हालाँकि सुरक्षवालों ने इसकी तीब्रता जरूर कम कर दी .लेकिन पिछले दिनों के फिदायीन हमले ने सुरक्षवालों को एक नयी रणनीति से वाकिफ कराया था .तो क्या सुरक्षवालों के पास उस रणनीति का तोड़ नहीं है ,क्या दुसरे फिदायीन हमलों के अंदेशे ने सुर्क्षवालो  को तिरंगा फहराने से रोका था .वजह जो भी हो लेकिन लाल चौक आज शर्मशार है .