शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

अब बंद कमरे में होगी कश्मीर मसले पर बातचीत




ओमर अब्दुल्ला मानते है कि कश्मीर में नौजवानों ने पैसे के लिए या फिर  तरक्की के लिए बन्दूक नहीं उठाई थी . नवजवान चीफ मिनिस्टर मानते है कि कश्मीर में बन्दूक लोगों ने मसले के हल के लिए उठाया था . वादी में ये खून खराबा कश्मीरियों ने आज़ादी के लिए किया था . मार्केटिंग की दुनिया से लौटे ओमर साहब सियासी करियर में जोर आजमैस कर रहे है . अरबी में एक कहावत काफी प्रचलित है कि जिसने ज्यादा दुनिया घूमा हो वह उतना ही ज्यादा झूठ बोलता है . ओमर अब्दुल्ला अपने खानदान की नाकामयाबी को छुपाने के लिए सीधे झूठ का सहारा ले रहे है . इन्हें यह याद दिलाने कि जरूरत है कि १९४८ में जब पाकिस्तानी फौज ने कश्मीर पर आक्रमण किया था तो कश्मीर के हजारों लोगों ने पाकिस्तानी गुरिल्लाओं को रोका था . सैकडो की तादाद में लोग शहीद हुए थे . बारामुल्ला में पाकिस्तानी फौज ने सैकडो बहनों की असमत्दरी की थी .भारत में कश्मीर विलय का एलान होने के साथ ही भारतीय फौज ने पाकिस्तानी आक्रमणकारियों को मार भगाया था . भारतीय फौज के स्वागत में लाखों की तदाद में जमाहोकर कश्मीरियों ने भारत के प्रति अपने समर्थन का इजहार किया था . याद रखने वाली बात यह भी है कि वह शेख अबुल्लाह ही थे जिनके कहने पर पंडित नेहरु संयुक्त राष्ट्र गए और कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के हवाले कर दिया था ,जिसे हम पाकिस्तान मक्बूजा कश्मीर के नाम से जानते है . ओमर साहब को यह भी याद दिलाने की जरूरत है कि युसूफ शाह १९८९ तक एक आम कश्मीरी एक आम भारतीय ही था . भारतीय लोकतंत्र में उसे गहरी आस्था थी और उसने एम् एल ए के लिए पर्चा भी भरा था . लोग कहते है कि युसूफ शाह की जीत पक्की थी . लेकिन फारूक अब्दुल्लाह ने उसके सपने पर पानी फेर दिया उसे एम् एल ए नहीं बनने दिया गया . युसूफ शाह सैयेद शालाहुद्दीन बन गया . वह हिजबुल मुजाहिदीन का कमांडर बन बैठा . और जब कश्मीर में आतंकवाद का दौर शुरू हुआ तो फारूक अब्दुल्ला कश्मीर छोड़कर लन्दन भाग खड़े हुए . राजीव गांधी की भावुकता का नाजायज फायदा उठाकर फारूक अब्दुल्लाह १९९६ में ही दुबारा मुख्या मंत्री बनकर लौटे .जम्हूरियत का जितना बलात्कार ओमर साहब  कश्मीर में हुआ शायद ऐसा भारत में कही हुआ हो . और ३० साल तक शेख अब्दुल्लाह खानदान का जबरन कब्जा लोगों को लोकतंत्र से भरोसा ख़त्म कर दिया था . कश्मीर में बन्दूक की यही कहानी है जिसे ओमर अब्दुल्ला, प्रधानमंत्री को सियासी मसला समझाकर बरगलाने की कोशिश कर रहे है .
मसले कश्मीर को लेकर एक बार फिर चर्चा जोरों पर है . प्रधानमंत्री हर तबके से बात करने की अपील कर चुके है .गृह मंत्री यूनिक सॉल्यूशन निकालने की पहल कर रहे है . गृह मंत्री बंद कमरे में सियासी लीडरों से बात करना चाहते है . ओमर अब्दुल्ला से लेकर मुफ्ती  तक जिसने भी सत्ता और शासन का भोग विलास किया है वह उनसे बात करने के लिए बंद कमरे क्या खुले मंच पर आजायेंगे लेकिन जिसे बात न करने के लिए पाकिस्तान से पैसा मिल रहा है वह भला गृह मंत्री के बहकावे में क्यों आये . रही बात कश्मीर में बन्दूक की तो ओमर फारूक से लेकर सैद अली शाह गिलानी तक सबने बन्दूक का समर्थन किया है . हुर्रियत के लीडर मानते है कि बगैर बंदुक्वार्दारों का उनका कोई अस्तित्वा नहीं है इस हालत में अगर गृह मंत्री को बात ही करनी है तो बंद कमरे में सीधे बन्दूक वाले से करे तो अच्छा है क्यों इन पिटे हुए लीडरों पर अपना समय जाया कर रहे है . वैसे भी उनके पास बात करने के लिए देश में और भी कई बंदूके है .

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

क्या आप मशहूर बनिता को जानते है ?

कालाहांडी के अम्लापाली गाँव की बनिता से मिलने ख़ुद स्वर्गीय प्रधान मंत्री राजीव गाँधी अपनी पत्नी सोनिया गाँधी के साथ पहुंचे थे । पूरी दुनिया में बनिता की ख़बर सुर्खियों में छाई हुई थी । बनिता भारत में भूख की ब्रांड एम्बेसडर बन गई थी । महज ४० रूपये में उसे बेचकर उसकी भाभी ने भूख से तड़पते हुए अपने बच्चों को बचाने की कोशिश की थी । २५ साल पहले यानि १९८५ इसवी में बनिता की यह कहानी भूख की पीड़ा की सबसे मार्मिक कहानी बनी थी । चर्चा में बनिता आई तो उसके साथ राजनेता से लेकर आला अधि़कारी भी आए ,कई समाजसेवी देशी विदेशी अनुदान से मालामाल हो गए । कालाहांडी की खूब खबरे छपी लेकिन बनिता इस चर्चा से दूर होती गई,सुविधा तो उसे कभी मिली ही नही ॥ आज उसे कोई पहचानने वाला नही है .इन २५ वर्षों में .किसीने यह जानने की भी कोशिश नही की क्या वाकई बनिता की हालत में कोई तबदीली आई ?क्या सरकारी घोषणाओं से बनिता की जिन्दगी में कोई फर्क आया ?

बनिता को उसकी भाभी ने गाँव के एक निर्धन बुजुर्ग बिद्या पोधा के हाथ महज ४० रूपये में बेच डाली थी । बिद्या पोधा ख़ुद भीख मांग कर अपना गुजरा करता था सो अपने साथ बनिता का भरण पोषण उसके लिए मुश्किल था । लेकिन बनिता की भाभी के लिए अपने चार बच्चों की परवरिश उसे अँधा बना दिया था । बनिता शादी के बाद अपने पति के साथ कालाहांडी के बंग्मंदा गाँव चली आई थी । इन २५ वर्षों में देश ने काफ़ी तरक्की कर ली लेकिन बनिता का संघर्ष बरक़रार रहा । आज उसके पाँच बच्चे है और एक बुढे बीमार पति लेकिन सबके पालन पोषण की जिम्मेबारी बनिता पर ही है । स्थानीय आंगनबाडी केन्द्र में बनिता खाना बनाने का काम करती है और इस एवज में ५०० रूपये महिना पाती है । इसी पाच सौ रूपये की बदौलत बनिता अपने पुरे परिवार की भूख मिटाती है । यानि भूख से सरोकार बनिता को २५ साल पहले भी था और आज भी है लेकिन ये अलग बात है कि वह अपनी भाभी की तरह किसी बच्चे को बेचने को तैयार नही है ।

कालाहांडी भूख का पर्याय बन गया । दर्जनों सरकारी प्रोग्राम यहाँ चलाये गए लेकिन न तो इस इलाके में भूख की त्राशदी कम हुई न ही बनिता जैसी माताओं की मुश्लिले कम हुई । जिस के घर कभी राजीव गांधी ख़ुद हाल चाल लेने पहुंचे उसे आज तक इंदिरा आवास योजना से एक अदद घर नही मिला ।सरकारी योजनाओं का जितना चीरहरण कालाहांडी में हुआ है उतना शायद ही कही देखने को मिले । ये अलग बात है आज अगर राहुल गाँधी उसका हाल जानने पहुचे तो बिन्देश्वरी पाठक जैसे समाजसेवी बनिता को लाख दो लाख रूपये देने जरूर पहुच जायेंगे । लेकिन न तो बनिता विदर्भ की कलावती है न ही मीडिया की नजर में बनिता आज कोई ख़बर है ।

शनिवार, 15 अगस्त 2009

नक्सल प्रचार के सामने बेवस सरकार



सरकार के भारी भरकम जनसंपर्क विभाग ,इन्फोर्मेशन एंड ब्राडकास्टिंग डिपार्टमेन्ट नक्सली प्रचार के सामने बेवस है । देश के दर्जनों मीडिया चैनल टी आर पी के लिए जदोजहद कर रहे हो लेकिन नक्सली प्रचार की धार इनसे कही ज्यादा है । यानि नाक्साली के मीडिया सेल कही ज्यादा सशक्त है ।छत्तीसगढ़ के बस्तर के एक छोटे से गाँव मारिकोदर में एक युवक की हत्या किसीने गोली मार कर करदी थी । गोली उसके पीठ में लगी थी । जाहिर है भागने के प्रयास में लगा उस युवक को दूर से गोली मारी गई थी । लेकिन अगले दिन इलाके में यह ख़बर फैली की पुलिस ने मंगलू को गोली मार कर हत्या कर दी है । पन्द्रह साल के मंगलू से पुलिस की क्या दुश्मनी हो सकती थी यह बताने के लिए कोई तैयार नही था लेकिन हर कोई दावे के साथ कह रहा था की यह हत्या पुलिस ने ही की है । वही २ किलो मीटर दूर पुलिस का एक नाका ,इन बातों से पुरी तरह अनभिज्ञ है । उसे इस घटना की कोई जानकारी नही है । और न ही पुलिस जंगल के इन आदिवासी इलाकों में इन वारदातों के लिए फिक्रमंद है । क्योकि यह नक्सल प्रभावित इलाका है और मौत यहाँ कोई बड़ी घटना नही है । बस्तर की यह रिपोर्ट बकवास रिपोर्ट समझकर कबाड़खाने में डाल दिया गया था । लेकिन १५ दिन बाद उस गाँव में एक नया खुलासा सामने आता है ।

१४ अगस्त को जंगल से घर लौटे चार युवक ने बताया कि दरअसल उन्हें नक्सलियों ने अगवा कर घने जंगल के बीच ले गए थे । लेकिन मंगलू ने उन्हें चकमा देकर भागने की कोशिश की तो नक्सली ने उसे गोली मार दी । उनके लोगों ने गाँव में यह ख़बर फैलाई की पुलिस ने मंगलू को गोली मारी है । नक्सली मीडिया का विस्तार यहाँ तक़रीबन हर इलाके में है । मास मीडिया का इससे बेहतर उपयोग शायद ही हुकूमत कर सकती है जैसा नक्सली कर रहे है ।

दूसरी घटना कांकेर की है जहाँ से यह ख़बर आई कि नक्सलियों ने एक परिवार के आठ लोगों को जिन्दा जला दिया । मरने वालों में चार साल का बच्चा भी था । ख़ुद राज्य के मुख्यमंत्री ने इसके लिए खेद व्यक्त किया था । कांकेर पुलिस को जिस व्यक्ति ने यह सुचना दी थी ,बाद में वह व्यक्ति सीन से गायब हो गया । पुलिस इस ख़बर को हर हाल में पुष्टि करना चाहती थी । घटना स्थल पर जाने का मतलव था खतरे का बुलावा ,सो पुलिस फूंक फूंक कर कदम रख रही थी । दो दिन बाद पता चला कि यह फर्जी रिपोर्ट थी । इस बीच हत्या की ख़बर देने वाले रामायण विश्नुकर्मा भी पुलिस के गिरफ्त में आ गए । उन्होंने यह खुलासा कर के सबको लगभग चौका दिया था कि ऐसी रिपोर्ट थाणे में लिख्बने के लिए उन्हें नक्सलियों ने प्रेरित किया था । मकसद साफ़ था कि नाक्साली पुलिस पार्टी को अपने जाल में फ़साना चाहते थे । नक्सली को यह एहसास था कि आठ लोगों के मौत की तफ्तीश करने पुलिस पार्टी जरूर पहुँचेगी ,लेकिन पुलिस ने ऐसा नही किया और नाक्साली की रणनीति बेकार साबित हुई ।

लेकिन महाराष्ट्र के गढ़चिरोली में पुलिस ने ऐसी साबधानी नही बरती और एक महिला के ग़लत सुचना के आधार पर कारवाई करने पहुँची पुलिस पार्टी के १८ जवान सहित एक ऑफिसर मारे गए ।

ये नक्सली प्रचार का असर है कि सात राज्यों के ग्रामीण और जंगल के इलाके में नक्सली अपना दबदवा बरक़रार रखते हुए अपना पैर दुसरे राज्यों में फैला रहा है । नक्सालियों के खुफिया तंत्र कितना मजबूत है इसका अंदाजा लालगढ़ ऑपरेशन से लगाया जा सकता है । केन्द्र सरकार की यह ताजा पहल लगभग बेकार साबित हुई है । राज्य सरकार के निकम्मेपन की मार केंद्रीय फाॅर्स को भी झेलनी पड़ी । वेस्ट मिदनापुर के तक़रीबन १०००० गाँव में फैले नाक्साली प्रभाव को नाकाम इसलिए नही बनाया जा सका क्योंकि आम लोगो के बीच सरकार से कोई संवाद नही था । पारा मिलिटरी फाॅर्स खुफिया जानकारी के बगैर पुरे महीने इधर उधर हाथ पैर मरती रही लेकिन न तो कोई नाक्साली कमांडर पकड़ा गया न ही सुर्क्षवालों को नाक्साली ठिकाने का पता लग पाया । नाक्साली हिंशा लाल गढ़ में जारी है । साफ़ है की नक्सल प्रचार के सामने सरकार बेवस है । बस्तर इलाके में लोक सभा चुनाव हुए विधान सभा चुनाव हुए लेकिन आज तक कोई उमीदवार नक्सल प्रभावित इलाके का दौरा नही कर पाया । आखिर इन इलाके के लोगों का कौन जनप्रतिनिधि है । अबुज्मार के जंगली इलाकों में रहने वाली एक बड़ी अवादी नक्सालियों के अलावा अज तक प्रशाशन के एक व्यक्ति से नही मिला है । इस हालत में कल्पना की जा सकती है एक केरल जैसा एक हरियाणा जैसे राज्य के भूभाग पर नक्सालियों का कब्जा सरकार कैसे हटा सकती है ?नक्सली बन्दूक से नही हारेंगे क्योंकि उन्होंने आदिवासी वस्तियों को अपना कबच बना लिया है । सड़क मार्गों पर नक्सालियों ने लैंड मैंस बिछा रखा है । लोगों से सरकार का संपर्क नही है। इस हालत में खुफिया जानकारी मिलना मुश्किल है । नक्सल के ख़िलाफ़ हमले से पहले गाँव से लेकर शहरों तक उसके प्रचारतंत्र को तोड़ना जरूरी है ।


सोमवार, 10 अगस्त 2009

नरेगा में मिल रहा है दाम लेकिन काम के नाम पर ठन ठन गोपाल




नरेगा यानि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना । गाँव की तस्वीर बदल देनेवाली इस स्कीम ने पिछडे इलाके को उर्जा से भर दिया है । कही मिटटी के टिल्ले बनाये जा रहे है तो कही खेतों की क्यारिया । कही तलावों से मिटटी निकली जा रही है । यानि काम सिर्फ़ मिटटी निकलने का हो रहा है और यह भी सच है इस सारे प्रयास को आखिरकार मिटटी में मिल जाना है । मार्च के महीने में बनने बाला यह टिल्ला जुलाई आते आते बाढ़ में बह जाना है । खेतों बनी क्यारिया में सीमेंट लगेंगे नही सो अगले सीज़न तक इसका वजूद नही रहेगा । सरकार का मानना है नरेगा से वाटर हार्वेस्टिंग की दिशा में भारी कामयाबी मिली है लेकिन उन इलाकों जहाँ कभी जल संकट रहा नही है वहां यह हार्वेस्टिंग माल महराजी का और मिर्जा खेले होली की बात को ही दर्शाती है । "मुखिया पदम् सिंह जी बताते है कि यहाँ कोई काम है नही सो कागज़ पर काम दिखाने से बेहतर है कि कुछ मिटटी ही खोद दिया जाय "।
बिहार के इस पिछडे इलाके में हर साल डैरिया से १०० से ज्यादा लोगों की मौत होती है । वजह सनिटेशन का घोर अभाव है । दूर से आती दुर्गंध हवा आपको किसी बस्ती का एहसास करा सकती है । गाँव से बाहर की सड़के मल-मूत्र से भरा पड़ा है । दिन में बच्चे की बारी होती है तो दोपहर के बाद इन सड़कों पर वयस्क मर्दों का कब्जा हो जाता है । जबकि शाम ढलते ही महिलयों की टोली यहाँ जम जाती । अपना कहने के लिए सिर्फ़ यह सड़क ही साझा शौचालय है ।
यूनिसेफ का मानना है कि गाँव में शौचालय बनाकर डैरिया की मौत से लोगों को बचाया जा सकता है । यूनिसेफ की रिपोर्ट को माने तो भारत के महज १५ फीसद गाँव में ही अबतक शौचालय लोकप्रिय हो पाया है । चौकाने वाली बात यह है कि भारत के ग्रामीण इलाके में सबसे ज्यादा मौत डैरिया से ही होती है । मुखिया पदम् सिंह इस सच को स्वीकार कर ते है लेकिन अपनी मजबूरी बताते है कि हमें सिर्फ़ मिटटी काटने को कहा गया है ।
हालिया बजट में केन्द्र सरकार ने ३९ हजार करोड़ रूपये का प्रावधान नरेगा के लिए किया है यानि पिछले साल की तुलना में १४४ फीसद की ब्रिधि दर्ज की गई है । सरकार के लिए यह फ्लाग्शिप स्कीम है जिसमे ग्रामीण रोजगार में एक क्रांति की शुरुआत हुई है । नरेगा के कारण मौजूदा सरकार भले ही अपनी वापसी देख रही हो लेकिन समाज और देश के सामने यह कोई बड़ी उप्लाभदी नही दे पायी है । मुखिया जी मानते है सनिटेशन गाँव के लिए सबसे बेहद जरूरी है फ़िर पंचायत शोचालय और कचड़ा फेकने की योजना इसमें क्यों नही शामिल करती ? मुखिया जी कहते है कि ग्राम पंचायत के पास पॉवर नही है । सरकार कहती है कि नरेगा की तमाम योजनाओं की रूप रेखा ग्राम पंचायत को तय करनी है तो सनिटेशन और स्वच्छ पानी की योजना ग्राम पंचायत क्यों नही बना रही है । ग्रामीण रामलाल के पास इसका जवाब है ७५ हजार करोड़ रूपये का ऋण सरकार एक एलान में माफ़ कर सकती है तो ४० हजार करोड़ रूपये के नरेगा को लेकर इतना माथा पच्ची क्यों । देश का पैसा देश में ही न जा रहा है ।