रविवार, 16 जनवरी 2011

लाल चौक पर तिरंगा :दहशत मे ओमर अब्दुल्ला

1992 के बाद यह पहलीबार है कि श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा लहराने के लिए बीजेपी ने जिद ठानी है .१८ वर्ष पहले भी तत्कालीन हुकूमत ने बीजेपी को यह जिद छोड़ने की सलाह दी थी ,वैसी ही सलाह मौजूदा हुकूमत भी दे रही लेकिन इस सलाह मे घबराहट ज्यादा है . हुकूमत के सामने अमरनाथ श्रायन बोर्ड का जीता जगता उदाहरण सामने है कि महज कुछ मुठी भर लोगों के विरोध ने इसे अलगावादी सियासत का मुद्दा बना दिया था .लेकिन वे  सवाल आज भी दुरुस्त हैं  कि सर्दी से कापते यात्रियों के लिए महज कुछ गज ज़मीन का उपयोग धारा ३७० के खिलाफ था ?क्या यह भारत की साजिश थी जिससे वह वहां की अवादी के अनुपात को बदलना चाहती थी ?अफ़सोस की बात यह कि सरकार अलगाववादियों के भ्रामक प्रचार और हुडदंग के आगे पूरी तरह आत्मसमर्पण कर चुकी थी .और कश्मीर के लोग भी उस सियासी हुडदंग को समझ नही पाए .ठीक वैसी ही परिस्थिति आज भी बन रही है .सियासी मुद्दे की तलाश मे भटकती बीजेपी को एक बार फिर तिरंगा की याद आई है .सो उसने लाल चौक पर तिरंगा लहराने का फैसला लिया है ,शायद इस सोच से कि इस मसले को लेकर बवाल और चर्चा होना लाजिमी है .बीजेपी के इस अभियान को इस बार जे के एल ऍफ़ के नेता यासीन मल्लिक का साथ है .और यह मसला रोज मिडिया की सुर्ख़ियों मे है .राज्य सरकार के मुख्यमंत्री अब्दुल्ला इतने आशंकित है कि उन्हें दुबारा अमरनाथ श्रायन के मसले की पुनरावृति दिख रही है .बड़ी मुश्किल से उन्होंने पिछले छः महीने के सियासी तूफ़ान मे अपनी नौकरी बचाई है लेकिन यह मसला उन्हें ज्यादा आशंकित कर रखा है .सवाल यह है कि क्या लाल चौक पर इससे पहले तिरंगा नही लहराया जाता था ?अगर ऐसी प्रथा थी तो यह अधिकार ओमर अब्दुल्ला का है कि वे कहते कि लाल चौक पर झंडा बीजेपी नही बल्कि रियासत की सरकार फहराएगी .ओमर अब्दुल्ला ठीक वैसा ही भारतीय है जैसा कि कोई बीजेपी वाला लेकिन ओमर अब्दुल्ला अपने इस गौरब को क्यों बीजेपी को झटकने दे रहे है ,यह सबसे बड़ा सवाल है .क्या आज़ादी मांगने वालों की आवाज आज कश्मीर मे इतनी मजबूत है कि यासीन मल्लिक के एक धमकी से ओमर अब्दुल्ला परेशान और बेहाल है ?
  पिछले २० वर्षों में लाल चौक  पर सीना ताने खड़े घंटा घर ने जितनी शर्मिंदगी अलगाववादियों के कारण नहीं झेली होगी उससे ज्यादा जिल्लत उसे हुकूमत के कारण झेलनी पड़ी है  . गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के पिछले दो मौके   पर लाल चौक पर तिरंगा नहीं फहराने के पीछे सरकार की जो भी दलीले हो लेकिन इतना तो तय है कि इस फैसले ने लाल चौक के शौर्य  को धूमिल किया है .पिछले २० वर्षों में लालचौक ने दर्जनों आतंकवादी हमले के दंश सहे है  .दर्जनों बार पाकिस्तान का झंडा इसके सीने पर लटका दिया गया .लेकिन इन १८ वर्षों में जब कभी तिरंगा के साथ इस चौक को सजाया जाता तो वह अपने पुराने जख्मो को भूल जाता था. सरकार  की यह  दलील है यहाँ झंडा फहराने की कोई परंपरा नहीं थी ,न ही यह लाल चौक कोई सियासी जलसे की उपयुक्त जगह है .लाल चौक इन दलीलों को ख़ारिज करता है .उसका सवाल है क्या मुग़ल बादशाह ने लाल किला तिरंगा फहराने के लिए बनाया था .क्या इंडिया गेट को अंग्रेजों ने गणतंत्र दिवस मनाने के लिए बनाया था . अगर किसी ने लाल चौक के शोर्य को बढ़ाने और तिरंगा के जरिये वादी के आम लोगों के जज्वात से जुड़ने की कोशिश की, तो क्या यह गलत परम्परा थी ? 

.दहशतगर्दी के दौर में भी या कहे कि १९९२ में भी वादी ए कश्मीर में ऐसे लाखों लोग थे जिनका तिरंगा के साथ सरोकार था .जिनका तिरंगे के प्रति  अटूट आस्था थी .यही वजह थी कि इन वर्षों में कई सरकारे आई गई लेकिन यह परंपरा वहां के लोगों के साथ मिलकर हिफाजती अमले  ने निभाई .लेकिन आज जब सरकार अमन और शांति का दावा कर रही है फिर लाल चौक के इस सम्मान को छिनने के क्या वजह हो सकती थी .गणतंत्र दिवस हो या स्वतंत्रता दिवस अलगाववादियों के बंद - हड़ताल की कॉल और आतंकवादियों की धमकी के बीच खाली और सुनसान पड़े श्रीनगर के इस तारीखी चौक पर सिर्फ एक लहराता तिरंगा ही तो था जो अलगाववादियों के मसूबे को फीका कर रहा था .लेकिन पिछले दो साल से लाल चौक सुनसान मार्केट में अकेला अपमान का दंश झेलता रहा है  .किसी ने ठीक ही कहा है कि सरकार इखलाक से चलती है , लेकिन यहाँ तो सरकार हांफती नज़र आ रही है . लाल चौक पर  तिरंगा  संप्रभुता की पहचान थी .कश्मीर के लाखों लोगों को यह एहसास करा रहा था कि यहाँ की अलगाववादी सियासत कुछ चंद सिरफिरों की सनक है ,लेकिन लाल चौक से तिरंगा हटाकर हुकूमत ने यह एहसास कराया है कि अलगाववाद की जड़े श्रीनगर में गहरी है .जिस अलगाववाद को लोगों ने जब तब  वोट के जरिये हराया है उसे सरकार के एक फैसले ने हतोत्साहित कर दिया है .
७० के दशक मे श्रीनगर के कुछ उत्साही मार्क्सवादियों ने रूस के रेड स्कुएर की तर्ज पर इस चौक का नाम लालचौक रखा था .कारोबारी शहर के बीचो बीच स्थित इस चौक की ख्याति  शेख अब्दुल्ला ने भी बढ़ाई . शेख अब्दुल्ला का जनता दरवार कभी लालचौक की शान बढ़ाता था .खुद पंडित नेहरु ने इस लालचौक पर तकरीरे की है . १९७५ में यहाँ घंटाघर वजूद में आया और इसने इसे  कारोबारी चौक का दर्जा दिलाया .श्रीनगर में भारत के कोने कोने से पहुचे पर्यटकों ने इसकी शान में और इजाफा किया .लेकिन १९८९ के दौर में  पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने यहाँ की हलचल में जहर घोल दिया .लालचौक आतंकवादी गतिविधियों का केंद्र बन गया .जाहिर है बन्दूक के खौफ ने अलगाववादियों को एक सियासी आधार दिया और उनका सियासी ठिकाना लालचौक हो गया .पिछले २० वर्षों में लालचौक ५ साल बंद रहे .सैकड़ों मासूमो को इस चौक ने अपने आँखों के सामने आतंकवादियों की गोलियों से छलनी होते हुए देखा है .बाद में इस चौक की सुरक्षा की जिम्मेवारी पहले बी एस ऍफ़ ने बाद में सी आर ऍफ़ ने सँभाल ली .लेकिन हमलों का दौर जारी रहा और आतंकवादी जब तब इस लालचौक पर हमला करके अपनी प्रभुसत्ता दिखाने की कोशिश की है .हालाँकि सुरक्षवालों ने इसकी तीब्रता जरूर कम कर दी है  .तो क्या आतंकवादी  हमलों के अंदेशे ने यहाँ  तिरंगा फहराने से रोका था ?क्या भारतीय होने और उस पर फक्र करने वाले कश्मीरियों का सर इस फैसले से नही झुका है ?इस देश को यह जानने का जरूर हक है कि जिस तिरंगा झंडा की शान मे हजारो हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख ,ईसाई ने अपनी जान कुर्बान की है.  क्या इसे एक मुख्यमंत्री की कुर्सी सही सलामत रखने के लिए इसकी शान के साथ गुश्ताखी  की जा सकती है ?   हर सवाल का जवाब आखिर सरकार को ही देना है लेकिन यह भी तय है कि यह सवाल पूछने का हक सिर्फ बीजेपी को नही है .