बुधवार, 6 जनवरी 2010

अमन की आशा मीडिया से नहीं सरकार से होनी चाहिए

पूरी दुनिया नए साल के जश्न डूबी हुई थी लेकिन उसी दुनिया के एक कोने में इन्शानियत चीत्कारें मार रही थी . क्या बच्चे क्या जवान ठीक १ जनबरी को हुए धमाके ने पाकिस्तान में १२५ से ज्यादा लोगों की जान ले ली थी . नए साल के मोके पर वोलीबोल मैच का आनंद उठा रही भीड़ पर फिदायीन हमले करके कुछ आतंकवादियों ने हजारो लोगों की खुशिया एक पल मे छीन ली . पाकिस्तान के अलग अलग इलाके मे हुए आतंकवादी हमले मे पिछले साल १०००० से ज्यादा लोग मरे है .लेकिन भारत मे हम इस बात से दुखी होने के वजाय खुश है कि पाकिस्तान में आज उन्ही के जूते उन्ही के सर बज रहा है . हमारे राजनितिक समीक्षक हमें बता रहे है कि ब्लीडिंग इंडिया बाय थौसंड्स कट्स की पालिसी पाकिस्तान पर भारी पर रही है . हम इसलिए भी खुश हो रहे है कि जिस विष बेल को पाकिस्तान ने बड़ा किया वही आज पाकिस्तान को डस रहा है . इस्लामाबाद से लेकर लाहोर तक पेशावर से लेकर कराची तक पाकिस्तान का शायद ही कोई शहर है जो आतंकवादी हमले से लहुलाहन न हो . आर्मी हेड कुअर्टर से लेकर पुलिस छावनी ,आई एस आई के दफ्तर से लेकर मस्जिद तक हर प्रतिष्ठान धमाको से दहल रहा है . इस्लामिक देश पाकिस्तान मे शिया , आतंकवादी के निशाने पर है तो मस्जिद मे नमाज अदा करने आये श्रद्धालु जब तब आतंकवादियों के धमाके के शिकार हो जाते है . क्या पाकिस्तान की ये हालत वाकई किसी पडोशी मुल्क के लिए खुशखबरी हो सकती है ?
१९४७ से लेकर आज तक पाकिस्तान की हुकूमत यह तय नहीं कर पायी है कि मुल्क की दिशा और दशा क्या होनी चाहिए . कभी सामन्ती लोगों का नेतृत्वा इस्लाम के नाम पर अपनी सत्ता मजबूत करने की कोशिश करता है तो बंगलादेश के नाम से अलग मुल्क की मांग इस्लाम के नाम पर मुल्क की अवधारणा को गलत साबित करती है . कभी पाकिस्तान मे फौज का नेतृत्वा कश्मीर का बहाना बनाकर पाकिस्तान मे अपनी सत्ता मजबूत करता है ,तो कभी भारत के खिलाफ नफरत फैला कर वही नेतृत्वा जिहाद की वकालत करता है . लेकिन हर बार नेतृत्वा के झांसे मे भोली भाली जनता ही इसका खामियाजा भुगतती है . १९८५ के दौर मे जनरल जिया ने अमेरिका का साथ लेकर मुल्ला और फौज का एक गठजोड़ बनाया और पुरे पाकिस्तान में हर आम और खास को बम और बारूद सुलभ बना दिया . इस दौर मे आतंकवादियों का एक दो नहीं ५० से ज्यादा संगठन बने जिन्हें पाकिस्तान में अपने विस्तार की पूरी छूट दी गयी . पाकिस्तान का हर मस्जिद और मदरसे इनके गिरफ्त में आगये जहाँ नफरत की फसल तैयार होने लगी .जिनका इस्तेमाल कभी अफगानिस्तान में किया गया तो कभी इन सरकारी दहशतगर्दों को भारत के खिलाफ झोंक दिया गया . इन वर्षों में इन सरकारी दहशतगर्दों ने सिर्फ भारत में ही २०००० से ज्यादा लोगों की जान ली . लेकिन चुकी पाकिस्तान ने इन दहशतगर्द करवाई को कश्मीर की आज़ादी के साथ जोड़ रखा था ,इसलिए दुनिया ने इसे आतंकवादी कहने के वजाय आतंकवादियों को फ्रीडोम फाइटर का दर्जा दे रखा था . लेकिन ९\११ के अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर पर हुए आतंकवादी हमले ने दुनिया को एहसास कराया कि आतंकवाद को अलग अलग चश्मे मे देखने की वजह से ही पाकिस्तान मे जेहादियों को फलने फूलने का मौका दिया है . भारत से निकलकर अब जेहादी  पश्चिम के मुल्कों में निज़ामे मुश्तफा का परचम फहराने लगे है . आतंकवाद के खिलाफ पश्चिम के मुल्को खासकर अमेरिका के सख्त रबैये ने पाकिस्तान की रणनीति को गड़बड़ा दिया  और अब वहा की हुकूमत और आतंकवादी आमने सामने है ...
पाकिस्तान में सत्ता के कई केंद्र बिंदु है ,सत्ता का एक केंद्र जहा भारत के साथ बेहतर तालूकात चाहता है तो दूसरा केंद्र मुंबई हमले को अंजाम देकर राजनितिक पहल पर पानी फेरता है . तो दूसरा केंद्र इस ताक मे होता है कि राजनितिक सत्ता जैसे ही कमजोर हो सत्ता पर काबिज हो जाय . राजनितिक सत्ता ,आई एस आई और फौज का अलग अलग स्टेट हर दौर मे अपनी सत्ता मजबूत करने के लिए आतंकवाद को तुरुप के पत्ते के तौर पर इस्तेमाल करता रहा है. वाजपेयी और नवाज शरीफ की बढती नजदीकी के बीच मुशरफ का कारगिल हमला इसी सन्दर्भ में समझा जा सकता है .
तो क्या पाकिस्तान में मचे इस सत्ता संघर्ष और उसमें पिसती जनता के मसले पर क्या पडोसी मुल्क सिर्फ तमाशविन बना रह सकता है . हमारे प्रधानमंत्री जोर देकर कहते है कि पाकिस्तान का स्थायित्वा भारत के लिए बेहद जरूरी है तो फिर जेहादियों से लहूलुहान पाकिस्तान को मदद देने के लिए भारत का कोई कर्त्तव्य नहीं बनता . क्या भारत की थोड़ी सी मदद पाकिस्तान मे जेहादियों को अलगथलग नहीं कर सकता . लेकिन हर बार हमने मौके गवाए है .मुंबई हमले के दौरान भारत की मीडिया ने  बगैर पड़ताल किये पाकिस्तान की हुकूमत को हमले का दोषी करार दिया .. ६० घंटे की टीवी लाइव ने यह साबित कर दिया कि बगैर हुकूमत की इज़ाज़त के ऐसे हमले हो नहीं सकते थे . कारवाई के रूप मे या तो भारत सरकार को आतंकवादी ठिकानो पर हमले करने चाहिए था या फिर पाकिस्तानी हुकूमत को मौका दिया जाना चाहिए था कि वो मुल्ला और फौज की गठजोड़ का पर्दाफास कर सके लेकिन मीडिया के दवाब में सरकार ने वहां की हुकूमत को भी मुदालाह करार दिया .सबसे खास बात यह हुई कि मुंबई हमले ने एक बार फिर वहा की हुकूमत को आतंवादियों का साथ देने के लिए मजबूर कर दिया .
हिन्दुस्तान के बटवारे का जख्म अभी भरा नहीं है. सियासत के गंदे खेल में तब भी लाखों लोग इसके शिकार हुए थे . आज भी उन  हजारो परिवारों पर बटवारे के जख्मों के निशान देखे जा सकते है . आज भी पाकिस्तान के एक जनरल दिल्ली में अपना बचपन ढूंढने आता है . आज भी भारत के प्रधानमंत्री पाकिस्तान के एक छोटे से गाँव की तस्वीर देखकर भावुक हो उठते है .आज भी पाकिस्तान से आये प्रधानमंत्री का परिवार दिल्ली से हजारों किलोमीटर का सफ़र तय करके अपने अहलो अयाल को ढूंढने निकल पड़ता है . लाल कृषण आडवानी पाकिस्तान जाकर आजभी भावुक हो उठते है . यानि बटवारे के वाबजूद एक रिश्ता है जो अभी ख़तम नहीं हुआ है .वह रिश्ता राजनितिक नहीं है वह रिश्ता पारिवारिक है वह रिश्ता सामाजिक है वह रिश्ता  रिवायती है.  क्या इस मोड़ पर उन रिश्तो को मजबूत नहीं किया जा सकता ,क्या नए साल में हम अपने पडोशी मुल्क को यह नहीं कह सकते कि विश यू अ हैप्पी न्यू इयर ?

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