बुधवार, 27 जनवरी 2010

श्रीनगर के लालचौक का सबसे मायूस दिन


श्रीनगर का लालचौक आज खामोश है .पिछले २० वर्षों में इस चौक पर सीना ताने खड़े घंटा घर ने जितनी शर्मिंदगी अलगाववादियों के कारण नहीं झेली होगी उससे ज्यादा जिल्लत उसे हुकूमत के कारण झेलनी पड़ी . गणतंत्र दिवस पर लाल चौक पर तिरंगा नहीं फहराने के पीछे सरकार की जो भी दलीले हो लेकिन इतना तो तय है कि इस फैसले ने लाल चौक के शोर्य को धूमिल किया है .पिछले २० वर्षों में लालचौक ने दर्जनों आतंकवादी हमले के दंश सहे .दर्जनों बार पाकिस्तान का झंडा इसके सीने पर लटका दिया गया .लेकिन इन १८ वर्षों में जब कभी तिरंगा के साथ इस चौक को सजाया जाता तो वह अपने पुराने जख्मो को भूल जाता था . सरकार के कारिंदे की दलील है यहाँ झंडा फहराने की कोई परंपरा नहीं थी ,न ही यह लाल चौक कोई सियासी जलसे की उपयुक्त जगह है .लाल चौक इन दलीलों को ख़ारिज करता है .उसका सवाल है क्या मुग़ल बादशाह ने लाल किला तिरंगा फहराने के लिए बनाया था .क्या इंडिया गेट को अंग्रेजों ने गणतंत्र दिवस मनाने के लिए बनाया था . अगर किसी ने लाल चौक के शोर्य को बढ़ाने और तिरंगा के जरिये वादी के आम लोगों के जज्वात से जुड़ने की कोशिश की तो क्या यह गलत परम्परा थी .दहशतगर्दी के दौर में भी या कहे कि १९९२ में भी वादी ए कश्मीर में ऐसे लाखों लोग थे जिनका तिरंगा के साथ सरोकार था .जिनका तिरंगे के तै अटूट आस्था थी .यही वजह थी कि इन वर्षों में कई सरकारे आई गई लेकिन यह परंपरा वहां के लोगों के साथ मिलकर सुरक्षवालों ने निभाई .लेकिन आज जब सरकार अमन और शांति का दावा कर रही है फिर लाल चौक के इस सम्मान को छिनने के क्या वजह हो सकती थी .अलगाववादियों के बंद और हड़ताल ,आतंकवादियों की धमकी के बीच खाली और सुनसान पड़े श्रीनगर के इस तारीखी चौक पर सिर्फ एक लहराता तिरंगा ही तो था जो अलगाववादियों के मसूबे को फीका कर रहा था .लेकिन इस बार लाल चौक सुनसान मार्केट में अकेला अपमान का दंश झेलता रहा .

श्रीनगर के कुछ उत्साही मार्क्सवादियों ने रूस के रेड स्कुएर की तर्ज पर इस चौक का नाम लालचौक रखा था .कारोबारी शहर के बीचो बीच स्थित इस चौक की ख्याति बाद में शेख अब्दुल्ला ने भी बढ़ाई . शेख अब्दुल्ला का जनता दरवार कभी लालचौक की शान बढ़ाता था .खुद पंडित नेहरु ने इस लालचौक पर तकरीरे की है . १९७५ में यहाँ घंटाघर वजूद में आया .श्रीनगर में भारत के कोने कोने से पहुचे पर्यटकों ने इसकी शान में और इजाफा किया .लेकिन १९८९ के दौर में  पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने यहाँ की हलचल में जहर घोल दिया .लालचौक आतंकवादी गतिविधियों का केंद्र बन गया .जाहिर है बन्दूक के खौफ ने अलगाववादियों को एक सियासी आधार दिया और उनका सियासी ठिकाना लालचौक हो गया .पिछले २० वर्षों में लालचौक ५ साल बंद रहे .सैकड़ों मासूमो को इस चौक ने अपने आँखों के सामने आतंकवादियों की गोलियों से छलनी होते हुए देखा है .बाद में इस चौक की सुरक्षा की जिम्मेवारी पहले बी एस ऍफ़ ने बाद में सी आर ऍफ़ ने सँभाल ली .लेकिन हमलों का दौर जारी रहा हालाँकि सुरक्षवालों ने इसकी तीब्रता जरूर कम कर दी .लेकिन पिछले दिनों के फिदायीन हमले ने सुरक्षवालों को एक नयी रणनीति से वाकिफ कराया था .तो क्या सुरक्षवालों के पास उस रणनीति का तोड़ नहीं है ,क्या दुसरे फिदायीन हमलों के अंदेशे ने सुर्क्षवालो  को तिरंगा फहराने से रोका था .वजह जो भी हो लेकिन लाल चौक आज शर्मशार है .

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